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सुहानी भोर का सपना / विमल राजस्थानी

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वह ‘आधी रात’ अभी आधी, रे ! भोर सुहानी कब होगी
वेदना युगों की घनीभूत आँखों का पानी कब होगी

ओ ‘तिलक’ ! तुम्हारी गीता के
पन्ने-पन्ने पर दीमक हैं
‘गाँधी’ की आँधी गुजर गयी
जलते जुल्मों के दीपक हैं
इस शस्य-श्यामला धरती का आँगन ओझल खर-पातों से
भारत मात की बदरंगी चूनर फिर धानी कब होगी

क्या इसीलिए फंदे चूमे
गोली खाकर भी थे झूमे
जिनको हम याद नहीं करते
(वे भी फरियाद नहीं करते)
साथी जिनके भूचाल रहे, बस, एक दर्द वे पाल रहे
‘पुष्पित-पल्लवित शहीदों की कुर्बान जवानी कब होगी’

हम जेल गये या मार सही
हो गयी रक्त से लाल मही
लाखों सिर अनजाने लुढ़के
हिन्दू-मुस्लिम दीवार ढही
कब सोचा था हमने अपनी, हम कुर्बानियाँ भुनायेंगे
यह लोक-लाज, यह हया-शरम रे ! पानी-पानी कब होगी

षटऋतुएँ जहाँ जवान रहें
हीरे-सोने की खान रहें
वेदों की ऋचा जहाँ गूँजे
जिस धरती पर भगवान रहें
उसको कंगाली किसने दी, माता को गाली किसने दी
ले लिया क्रान्ति ने जन्म, किन्तु, यह आह ! सयानी कब होगी

कलमों के धनी ! उठो, जागो
पद-पदवी की ममता त्यागो
जन-जन की करूण पुकार सुनो
कुटियों का हाहाकार सुना
जागो शब्दों के जादूगर ! वाणी से आग झरे झर-झर
विप्लव के भैरव नाद बिना, यह पूर्ण कहानी कब होगी

कलमों की नोकों में दूना-
दम है दमदार दुनाली से
बदला लेने की ताकत है
इस जोर-जुल्म बलशाली से
शोषण की भट्ठी जले नहीं, यह राजनिति अब छले नहीं
ओ वाणी-पुत्रों ! कलम क्रुद्ध तलवार भवानी कह होगी