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हमारा कबूतर / दिविक रमेश

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रह तो बहुत दिनों से रहा है कबूतर
शॉफ़्ट के एक कोने में
हमारे घर की ।
और उसका परिवार भी
जब-तब फड़फड़ा लेता है पंख ।
और संगीत
कुछ देर थमा रह जाता है
गुसलख़ाने में
अटका
खिड़की के आस-पास ।

उस दिन बतिया रहा था कबूतर
घर के बाहर
पार के पेड़ पर
किसी कबूतर से ।

मैंने सुना
और ध्यान से सुना
कह रहा था चलते समय—
'आना कभी हमारे घर ।'

सुन कर मुझे अच्छा लगा था
और मान लीजिए चाहे बाक़ी सब गप्प
पर
पहली बार लगा था
कबूतर हमारा है
और घर कबूतर का भी ।