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दुर्दिन है आज / ओसिप मंदेलश्ताम
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दुर्दिन है आज
बन्द है
टिड्डों का समूहगान
कब्र के काले पत्थरों से
अँटा पड़ा है
उदास चट्टानी दालान
कभी गूँजे हैं
छोड़े गए तीरों के स्वर
तो कभी सुन पड़े
लटके हुए कौओं की चीख
मैं देखँ सपना ख़राब-सा
क्षण के पीछे उड़ा जा रहा क्षण
समय दे रहा है कोई सीख
तुम आओ
आकर बंधन को दूर करो
पृथ्वी के इस पिंजड़े को काटो
माया को चूर करो
कोई प्रचण्ड तराना गूँजे फिर
बागी, अनसुलझे,अनजाने
सब रहस्यों को दूर करो
ओ कठोर आत्मा काली !
लटकी चुपचाप तू डोल रही है
भाग्य बन्द-द्वार खटखटाए ज़ोर से
पर तू न खोल रही है
प्रसिद्ध रूसी कवि मयाकोव्स्की की प्रेमिका लील्या ब्रीक के अनुसार मंदेलश्ताम की यह कविता
मयाकोव्स्की की प्रिय कविता थी ।
(रचनाकाल :1911)