Last modified on 1 मार्च 2013, at 11:33

माँ की ज़िन्दगी / सुमन केशरी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:33, 1 मार्च 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमन केशरी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> चा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चाँद को निहारती
कहा करती थी माँ
वे भी क्या दिन थे
जब चाँदनी के उजास में
जाने तो कितनी बार सीए थे मैंने
तुम्हारे पिताजी का कुर्ते
काढ़े थे रूमाल
अपनी सास-जिठानी की नज़रें बचा के
अपने गालों की लाली छिपाती
वे झट हाज़िर कर देती
सूई-धागा
और धागा पिरोने की
बाजी लगाती
हरदम हमारी जीत की कामना करती माँ
ऐसे पलों में खुद बच्ची बन जाती

बिटिया यह नानी की कहानी नहीं
इसी शहर की
यह तेरी माँ की जिन्दगानी है...