चाँद को निहारती
कहा करती थी माँ
वे भी क्या दिन थे
जब चाँदनी के उजास में
जाने तो कितनी बार सीए थे मैंने
तुम्हारे पिताजी का कुर्ते
काढ़े थे रूमाल
अपनी सास-जिठानी की नज़रें बचा के
अपने गालों की लाली छिपाती
वे झट हाज़िर कर देती
सूई-धागा
और धागा पिरोने की
बाजी लगाती
हरदम हमारी जीत की कामना करती माँ
ऐसे पलों में खुद बच्ची बन जाती
बिटिया यह नानी की कहानी नहीं
इसी शहर की
यह तेरी माँ की जिन्दगानी है...