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आखरी कलाम / पृष्ठ 1 / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: आखरी कलाम / मलिक मोहम्मद जायसी


पहिले नावँ दैउ कर लीन्हा । जेइ जिउ दीन्ह, बोल मुख कीन्हा ॥
दीन्हेसि सिर जो सँवारै पागा । दीन्हेसि कया जो पहिरै बागा ॥
दीन्हेसि नयन-जोति, उजियारा । दीन्हेसि देखै कहँ संसारा ॥
दीन्हेसि स्रवन बात जेहि सुनै । दीन्हेसि बुद्धि, ज्ञान बहु गुनै ॥
दीन्हेसि नासिक लीजै बासा । दीन्हेसि सुमन सुगंध-बिरासा ॥
दीन्हेसि जीभ बैन-रस भाखै । दीन्हेसि भुगुति, साध सब राखै ॥
दीन्हेसि दसन सुरंग कपोला । दीन्हेसि अधर जे रचै तँबोला ॥

दीन्हेसि बदन सुरूप रँग, दीन्हेसि माथे भाग ।
देखि दयाल, `मुहमद' सीस नाइ पद लाग ॥1॥

दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि भुजादंड, बल बाहाँ ॥
दीन्हेसि हिया भोग जेहि जमा । दीन्हेसि पाँच भूत, आतमा ॥
दीन्हेसि बदन सीत औ घामू । दीन्हेसि सुक्ख-नींद बिसरामू ॥
दीन्हेसि हाथ चाह जस कीजै । दीन्हेसि कर-पल्लव गहि लीजै ॥
दीन्हेसि रहस कूद बहुतेरा । दीन्हेसि हरष हिया बहु मेरा ॥
दीन्हेसि बैठक आसन मारै । दीन्हेसि बूत जो उठें सँभारै ॥
दीन्हेसि सबै सँपूरन काया । दीन्हेसि दोइ चलै कहँ पाया ॥

दीन्हेसि नौ नौ फाटका, दीन्हेसि दसवँ दुवार ।
सो अस दानि `मुहमद', तिन्ह कै हौं बलिहार ॥2॥

मरम नैन कर अँधरै बूझा । तेहि बिसरे संसार न सूझा ॥
मरम स्रवन कर बहिरै जाना । जो न सुनै, किछु दीजै साना ॥
मरम जीभ कर गूँगै पावा । साध मरै, पै निकर न नावाँ ॥
मरम बाहँ कै लूलै चीन्हा । जेहि बिधि हाथन्ह पाँगुर कीन्हा ॥
मरम कया कै कुस्टी भेंटा । नित चिरकुट जो रहै लपेटा ॥
मरम बैठ उठ तेहि पै गुना । जो रे मिरिग कस्तूरी पहाँ ॥?
मरम पावँ कै तेहि पै दीठा । होइ अपाय भुइँ चलै बईठा ॥

अति सुख दीन्ह बिधातै, औ सब सेवक ताहि ।
आपन मरम `मुहमद' अबहूँ समुझ, कि नाहि ॥3॥

भा औतार मोर नौ सदी । तीस बरीस ऊपर कबि बदी ॥
आवत उधत-चार बिधि ठाना । भा भूकंप जगत अकुलाना ॥
धरती दीन्ह चक्र-बिधि लाईं । फिरै अकास रहँट कै नाईं ॥
गिरि पहार मेदिनि तस हाला । जस चाला चलनी भरि चाला ॥
मिरित-लोक ज्यों रचा हिंडोला । सरग पताल पवन-खट डोला ॥
गिरि पहार परबत ढहि गए । सात समुद्र कीच मिलि भए ॥
धरती फाटि, छात भहरानी । पुनि भइ मया जौ सिष्टि समानी ॥

जो अस खंभन्ह पाइ कै, सहस जीभ गहिराइँ ।
सो अस कीन्ह `मुहमद', तोहि अस बपुरे काइँ ॥4॥

सूरुज (अस) सेवक ताकर अहै । आठौ पहर फिरत जो रहै ॥
आयसु लिए रात दिन धावै । सरग पताल दुवौ फिरि आवै ॥
दगधि आगि महँ होइ अँगारा । तेहि कै आँच धिकै संसारा ॥
सो अस बपुरै गहनै लीन्हा । औ धरि बाँधि चँडालै दीन्हा ॥
गा अलोप होइ, भा अँधियारा । दीखै दिनहि सरग महँ तारा ॥
उवतै झप्पि लीन्ह, घुप चाँपै । लाग सरब जिउ थर थर काँपै ॥
जिउ कहँ परे ज्ञान सब झूठै । तब होइ मोख गहन जौ छूटै ॥

ताकहँ एता तरासै जो सेवक अस नित ।
अबहुँ न डरसि `मुहमद', काह रहसि निहचिंत ॥5॥

ताकै अस्तुति कीन्हि न जाई । कोने जीभ मैं करौं बढाई ?॥
जगत पताल जो सैते कोइ । लेखनी बिरिख, समुद मसि होई॥
लागै लिखै सिष्टि मिलि जाई । समुद घटै, पै लिखि न सिराई ॥
साँचा सोइ और सब झूठे । ठावँ न कतहुँ ओहि कै रूठे ॥
आयसु इबलीस हु जौ टारा । नारद होइ नरक महँ पारा ॥
सौ दुइ कटक, कहउ लखि घोरा । फरऊँ रोधि नील महँ बोरा ॥
जौ शदाद बैकुंठ सँवारा । पैठत पौरि बीच गहि मारा ॥

जो ठाकुर अस दारुन, सेवक तइँ निरदोख ।
माया करै `मुहम्मद', तौ पै होइहि मोख ॥6॥

रतन एक बिधनै अवतारा । नावँ `मुम्मद' जग-उजियारा ॥
चारि मीत चहुँदिसि गजमोती । माँझ दिपै मनु मानिक-जोती ॥
जेहि हित सिरजा सात समुंदा । सातहु दीप भए एक बुंदा ॥
तर पर चौदह भुवन उसारे । बिच बिच खंड-बिखंड सँवारे ॥
धरती औ गिरि मेरु पहारा । सरग चाँद सूरज औ तारा ॥
सहस अठारह दुनिया सिरैं । आवत जात जातरा करैं ॥
जेइ नहिं लीन्ह जनम महँ नाऊँ । तेहहि कहँ कीन्ह नरक महँ ठाऊँ ॥

सो अस देऊ न राखा, जेहि कारन सब कीन्ह ।
दहुँ तुम काह `मुहम्मद' एहि पृथिवी चित दीन्ह ॥7॥

बाबर साह छत्रपति राजा । राज-पाट उन कहँ बिधि साजा ॥
भुलुक सुलेमाँ कर ओहि दीन्हा । अदल दुनी ऊमर जस कीन्हा ॥
अली केर जस कीन्हेसि खाँडा । लीन्हेसि जगत समुद भरि डाँडा ॥
बल हजमा कर जैस सँभारा । जो बरियार उठा तेहि मारा ॥
पहलवान नाए सब आदी । रहा न कतहुँ बाद करि बादी ॥
बड परताप आप तप साधे । धरम के पंथ दई चित बाँधे ॥
दरब जोरि सब काहुहि दिए । आपुन बिरह आउ-जस लिए ॥

राजा होइ करै, सब छाँडि, जगत महँ राज ।
तब अस कहैं `मुहम्मद', वै कीन्हा किछु काज ॥8॥

मानिक एक पाएउँ उजियारा । सैयद असरफ पीर पियारा ॥
जहाँगीर चिस्ती निरमरा । कुल जग महँ दीपक बिधि धरा ॥
औ निहंग दरिया-जल माहाँ । बूडत कहँ धरि काढत बाहाँ ॥
समुद माहँ जो बाहति फिरई । लेतै नावँ सौहँ होइ तरई ॥
तिन्ह घर हौ मुरीद, सो पीरू । सँवरत बिनु गुन लावै तीरू ॥
कर गहि धरम-पंथ देखरावा । गा भुलाइ तेहि मारग लावा ॥
जो अस पुरुषहि मन चित लावै । इच्छा पूजै, आस तुलावै ॥

जौ चालिस दिन सेवै, बार बुहारै कोइ ।
दरसन होइ `मुहम्मद', पाप जाइ सब धोइ ॥9॥

जायस नगर मोर अस्थानू । नगर क नावँ आदि उदयानू ॥
तहाँ दिवस दस पहुने आएउँ । भा बैराग बहुत सुख पाएउँ ॥
सुख भा, सोचि एक दिन मानौं । ओहि बिनु जिवन मरन कै जानौं ॥
नैन रूप सो गएउ समाई । रहा पूरि भर हिरदय कोई ॥
जहवैं देखौं तहँवै सोई । और न आव दिस्टि तर कोई ॥
आपुन देखि देखि मन राखौं । दूसर नाहिं, सो कासौं भाखौं ॥
सबै जगत दरपन कै बेखा । आपन दरसन आपुहि देखा ॥

अपने कौकुत कारन मीर पसारिन हाट ।
मलिक मुहम्मद बिहनै होइ निकसिन तेहि बाट ॥10॥


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