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आखरी कलाम / पृष्ठ 2 / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: आखरी कलाम / मलिक मोहम्मद जायसी

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धूत एक मारत गनि गुना । कपट-रूप नारद करि चुना ॥
`नावँ न साधु', साधि कहवावै तेहि लगि चलै जौ गारी पावै ॥
भाव गाँठि अस मुख, कर भाँजा । कारिख तेल घालि मुख माँजा ॥
परतहि दीठि छरत मोहिं लेखे । दिनहिं माँझ अँधियर मुख देखे ॥
लीन्हे चंग राति दिन रहई । परपँच कीन्ह लोगन महँ चहई ॥
भाइ बंधु महँ लाई लावै । बाप पूत महँ कहै कहावै ॥
मेहरी भेस रैनि के आवै । तरपड कै पूरुख ओनवावै ॥

मन-मैली कै ठगि ठगै, ठगै न पायौ काहु ।
वरजेउ सबहिं `मुहम्मद', असि जिन तुम पतियाहु ॥11॥

अंग चढावहु सूरी भारा । जाइ गहौ तब चंग अधारा ॥
जौ काहू सौं आनि चिहूँटै । सुनहु मोर बिधि कैसे छूटै ॥
उहै नावँ करता कर लेऊ । पढौ पलीता धूआँ देऊ ॥
जौ यह धुवाँ नासिकहि लागै । मिनती करै औ उठि उठि भागै ॥
धरि बाईं लट सीस झकोरै । करि पाँ तर, गहि हाथ मरोरै ॥
तबहि सँकोच अधिक ओहि हौवै । `छाँडहु, छाँडहु!' कहि कै रोवैं ॥
धरि बाहीं लै थुवा उडावै । तासौं डरै जो ऐस छोडावै ॥

है नरकी औ पापी, टेढ बदन औ आँखि ॥
चीन्हत उहै `मुहम्मद', झूठ-भरी सब साखि ॥12॥

नौ सै बरस छतीस जो भए । तब एहि कथा क आखर कहे ॥
देखौं जगत धुध कलि माहाँ । उवत धूप धरि आवत छाहाँ ॥
यह संसार सपन कर लेखा । माँगत बदन नैन भरि देखा ॥
लाभ, दिउ बिनु भोग, न पाउब । परिहि डाड जहँ मूर गँवाउब ॥
राति क सपन जागि पछिताना । ना जानौ कब होइ बिहाना ॥
अस मन जानि बेसाहहु सोई । मूर न घटै, लाभ जेहि होई ॥
ना जानेहु बाढत दिन जाई । तिल तिल घहै आउ नियराई ॥

अस जिन जानेहु बढत है, दिन आवत नियरात ।
कहै सो बूझि `मुहम्मद' फिर न कहौं असि बात ॥13॥

जबहिं अंत कर परलै आई । धरमी लोग रहै ना पाई ॥
जबहीं सिद्ध साधु गए पारा । तबहीं चलै चोर बटपारा ॥
जाइहि मया-मोह सब केरा । मच्छ-रूप कै आइहि बेरा ॥
उठिहैं पंडित बेद-पुराना । दत्त सत्त दोउ करिहिं पयाना ॥
धूम-बरन सूरुज होइ जाई । कृस्न बरन सब सिष्टि दिखाई
दधा पुरुब दिसि उइहै जहाँ । पुनि फिरि आइ अथइहै तहाँ ॥
चढि गदहा निकसै धरि जालू । हाथ खंड होइ, आवै कालू ॥

जो रे मिलै तेहि मारै, फिरि फिरि आइ कै गाज ।
सबही मारि `मुहम्मद', भूज अरहिता राज ॥14॥

पुनि धरती कहँ आयसु होई । उगिलै दरब, लेइ सब कोई ॥
`मोर मोर', करि उठिहैं झारी । आपु आपु महँ करिहैं मारी ॥
अस न कोई जानै मन माहाँ । जो यह सँचा अहै सो कहाँ ॥
सैंति सैंति लेइ लेइ घर भरहीं । रहस-कूद अपने जिउ करहीं ॥
खनहिं उतंग, खनहि फिर साँती । नितहि हुलंब उठै बहु बाँती ॥
पुनि एक अचरज सँचरै आई । नावँ `मजारी' भँवै बिलाई ॥
ओहि के सूँघे जियै न कोई । जो न मरै तेहि भक्खै सोई ॥

सब संसार फिराइँ औ लावै गहिरी घात ।
उनहूँ कहै `मुहम्मद' बार न लागिहि जात ॥15॥

पुनि मैकाइल आयसु पाए । उन बहु भाँति मेघ बरसाए ॥
पहिले लागै परै अँगारा । धरती सरग होइ उजियारा ॥
लागी सबै पिरथिवीं जरै । पाछे लागे पाथर परै ॥
सौ सौ मन कै एक एक सिला । चलै पिंड घुटि आवैं मिला ॥
बजर-गोट तस छूटैं भारी । टूटैं रूख बिरुख-सब झारी ॥
परत धमाकि धरति सब हालै । उधिरत उठै सरग लौं सालै ॥
अधाधार बरसै बहु भाँती । लागि रहै चालिस दिन-राती ॥

जिया-जंतु सब मरि घटे जित सिरजा संसार ।
कोइ न है `मुहम्मद', होइ बीता संघार ॥16॥

जिबरईल पाउब फरमानू । आइ सिस्टि देखब मैदानू ॥
जियत न रहा जगत केउ ठाढा । मारा झोरि कचरि सब गाढा ॥
मरि गंधाहिं, साँस नहिं आवै । उठै बिगंध, सडाइँध आवैं ॥
जाइ देऊ से करहु बिनाती । कहब जाइ जस देखब भाँती ॥
देखहु जाइ सिस्टि बेवहारू । जगत उजाड सून संसारू ॥
अस्ट दिसा उजारि सब मारा । कोइ न रहा नावँ-लेनिहारा ॥
मारि माछ जस पिरथिवीं पाटी । परै पिछानि न, दीखे माटी ॥

सून पिरथिवीं होइगई, दहुँ धरती सब लीप ।
जेतनी सिस्टि `मुहम्मद' सबै भाइ जल-दीपि ॥17॥


मकाईल पुनि कहब बुलाई । बरसहु मेघ पिरथिवीं जाई ॥
उनै मेघ भरि उठिहैं पानी । गरजि गरजि बरसहिं अतवानी ॥
झरी लागि चालिस दिन राती । घरी न निबुसै एकहु भाँती ॥
छूटि पानि परलय की नाईं । चढा छापि सगरिउँ दुनियाईं ॥
बूडहिं परबत मेरु पहारा । जल हुलि उमडि चलै असरारा ॥
जहँ लगि मगर माछ जित होई । लेइ बहाइ जाइहि भुइँ धोई ॥

सून पिरथिवीं होइहि, बूझे हँसै ठठाइ ।
एतनि जो सिस्टि `मुहम्मद', सो कहँ गई हेराइ ॥18॥

पुनि इसराफीलहि फरमाए । फूँके, सब संसार उडाए ॥
दै मुख सूर भरै जो साँसा । डोलै धरती, लपत अकासा ॥
भुवन चौदहो गिरि मनु डोला । जानौ घालि झुलाव हिंडोला ॥
पहिले एक फूँक जो आई । ऊँच-नीच एक -सम होइ जाई ॥
नदी नार सब जैहै पाटी । अस होइ मिले ज्यों ठाढी माटी ॥
दूसरि फूँक जो मेरू उडहै । परबत समुद्र एक होइ जैहैं ॥
चाँद सुरुज तारा घट टूटै । परतहि खंभ सेस घट फूटै ॥

तिसरे बजर महाउब, अस धुइँ लेब महाइ ।
पूरब पछिउँ `मुहम्मद'एक रूप होइ जाइ ॥19॥

अजराइल कहँ बेगि बोलावै । जीउ जहाँ लगि सबै लियावै ॥
पहिले जिउ जिबरैल क लेई । लोटि जीउ मैकाइल देई ॥
पुनि जिउ देइहि इसराफीलू । तीनिहु कहँ मारै अजराईलू ॥
काल फिरिस्तिन केर जौ होई । कोइ न जागौ, निसि असि होई ॥
पुनि पूछब "जम! सब जिउ लीन्हा ?। एकौ रहा बाँचि जो दीन्हा ?॥"
सुनि अजराइल आगे होइ आउब । उत्तर देब, सीस भुइँ नाउब ॥
आयसु होइ करौं अब सोई । की हम, की तुम , और न कोई ॥

जो जम आन जिउ लेत हैं, संकर तिनहू कर जिउ लेब ।
सो अवतरें मुहम्मद' देखु तहुँ जिउ देब ॥20॥


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