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कवि / वीरेन डंगवाल

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 मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूँ वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूंगफली को छाँट कर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ

उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ

इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप हो कर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर

एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा ।