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खिला है जो गुलाब / श्रीप्रकाश मिश्र
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खिला है जो गुलाब
हँस रही है उसमें किसी की आत्मा
उड़ी जा रही है जो गंध
वह किसी की स्मृति है
रंगों में दहकता जा रहा है जो ओज
वह किन पुरुषों की इतिहास-व्यथा है
उसका हिलना कुछ पूछना है
कि बहती है हमारी आँखों में जो सूखी
वह चिरनिद्रा क्यों है
पँखुड़ी में गड़ा शूल
निकलकर क्यों नहीं गड़ता
हमारी आँख रूपी आँख में