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टी-पार्टी की शाम / विजेन्द्र

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दोस्त ने बड़े जोश से कहा
आज मिस कुसुम की
टी-पार्टी में चलना है न
मैं चुप रहा

उसने फिर देाहराया
वहाँ बहुत लोग आएँगे
कुछ सुनाएँगे नई बातें
कुछ नाच गाएँगे
मिलना-जुलना होगा
चलोगे न
मैं फिर भी चुप रहा

मन ही मन
ख़ुद को कोसता रहा
अन्दर की चोट में
चोट लगती रही
समय मुझ से उछट के भागेगा
मुझ में भी क्या कभी
सर्वहारा का विद्रोही जागेगा
वहाँ लोग सच को
चटकीले से लिबास से ढकेंगे
लोग पार्टी को कम
मिस कुसुम को लखेंगे

मेरा उससे न राग है
न विराग है
जितना निर्जन
फिर कहता फाग है
प्लास्टिक के फूलों-सी दिखेगी ताज़गी
मिठाइयाँ चखेंगे
लेंगे सिप की बानगी
गहरे रँगे होंगे होठ
अधेड़ों के भी होंगे बाल काले
ऐंठ में मुँह पै पड़ेंगे ताले

कोई ऐसा न होगा
जिसे कविता में रचाऊँ
होंगे जयपुर के मशहूर मर्द
स्त्रियाँ नामचीन
कैसे उनका भीतरला
रंगों में उतारूँ
समझो इसे, समझो मेरे कवि

आधे अधूरे फनकार
जो भी आएँगे-आएँगी
होंगे-होंगी -- सब एक जैसे-जैसी
मेरे मनचले मन की
होगी ऐसी तैसी
कीमती लिपिस्टिक की होगी बहार
चेहरे पै बेहद विज्ञापित क्रीम-पाउडर
बोझा ढोने को होंगे कहार
इस्प्रे होगा एकदम नया
होंगे सजावटी नकली गहने
अपने श्रम से ही
कितना सुंदर घोंसला
बनाती है बया

उनमें जीवन का वो कल्पतरु कहाँ
गेहूँ की लामनी करती ग्रामिन
हो जैसे खेत में वहाँ
सब में बजेगा खली कनस्तर
हर जगह दिखेगा
जहाँ-तहाँ उखड़ा पलस्तर
पेड़ों में पेड़ खजूर की होगी बू
हेगा हाथी ताँतों का ढर्रा
एक ढही हवेली की फिजा
उधारी की होंगी मुस्कराहटें बेदम
दिक् का न आँक होगा
न काल का मौसम

कहता है मुझ से मेरा ही अपना कोई
लिखता हूँ कविता खतिहरों को
मजूरों को, लकड़हारों को
बुनकरों सिकलीगरों को
तुम दिखाते हो जिन्हें कविता में
न वे कभी पढ़ पाएँगे
न सुन पाएँगे
दबे हैं इतना अधिक
दबंगों के ही गीत गाएँगे
तुम्हारी किताब भी
ख़रीदेगा कौन
अंत में सराहोगे कपट मन का मौन

मैं जानता हूँ जिन्हें दिखाता हूँ कविता में
उन्हें लगेंगे बदसूरत, गंदे, फूहड़
भड़कीले कपड़ों से जिस्म ढका जा सकता है
नहीं ढक पाओगे आँच और भूभड़