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उर्मिला / ‘हरिऔध’

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किसी ऊबती से न जो जी बचावें।
न दुख और का देख जो ऊब जावें।
कढ़ी आहें बेचैन जिनको बनावें।
जिन्हें प्यार की है परख वे बतावें।
किसी दिन भी दो बूँद ऑंसू गिरा कर।
हमारी पड़ी आँख है उर्मिला पर।1।

उसी उर्मिला पर न जिसने जताया।
किसी को दरद औ न दुखड़ा सुनाया।
तड़पता कलेजा न जिसने दिखाया।
न कोसा किसी को न मुखड़ा बनाया।
बिरह-बेलि जिसने हृदय बीच बोई।
जली रात दिन फूट कर जो न रोई।2।

जिसे प्यार कर, थी न फूले समाती।
न जिसका वदन देख कर थी अघाती।
न जिसके बिना थी कभी चैन पाती।
मधुर बात जिसकी बहुत थी लुभाती।
रही पद-सलिल प्रात ही जिसका पीती।
रही देख जिसकी कनक-कान्ति जीती।3।

उसी ने किया आह उससे किनारा।
न आई दया औ न दुख को बिचारा।
न एक बार उसके बदन को निहारा।
न देखी दृगों से गिरी वारि-धारा।
न दस पाँच दिन या बरस दो बरस को।
चला वह गया बन में चौदह बरस को।4।

सिसकती रही वह पड़ी एक कोने।
सुना सब, निकल किन्तु आई न रोने।
कलेजे में दुखके पड़े बीज बोने।
उसे सब सुखों से पड़े हाथ धोने।
न तब भी विकल प्राण-पति को बनाया।
न मुखड़ा हुआ आँसुओं में दिखाया।5।

जनक-नन्दिनी राम के पास आई।
किसी से तनिक भी न सहमी लजाई।
विलख कर बिरह वेदनाएँ सुनाई।
दृगों में भरी वारि बूँदें दिखाई।
अवध कँप उठा मर्म वेधी विरह से।
हिली तक नहीं उर्मिला निज जगह से।6।

जनक के सदन में पली उर्मिला थी।
सिया की सखी उच्च-कुल कन्यका थी।
इसी से कहूँगा न वह निष्ठुरा थी।
वरन प्रेम रँग में रँगी प्रेमिका थी।
तनिक भी नहीं जो जगह से हिली वह।
बड़ी ही समझ बूझ की बात थी यह।7।

रहे राम स्वाधीन जेठे सहोदर।
उन्हें था न संकोच सकते थे सब कर।
सुमित्रा सुवन थे पराधीन सहचर।
बिबिध राम-सेवादि में रत निरन्तर।
इसी से न वह साथ सकते थे ले जा।
सुमुखि उर्मिला को कठिन कर कलेजा।8।

उसे ले, अगर साथ सौमित्र जाते।
बड़े काम तो एक भी कर न पाते।
कहाँ तक लजाते ढिठाई दिखाते।
बड़ों की बड़ाई कहाँ तक निभाते।
असुविधा सभी बात में मुख दिखाती।
बँधी मेंड़ मरजाद की टूट जाती।9।

समझती रही उर्मिला बात सारी।
रही पति-हृदय से उसे जानकारी।
नहीं मानती थी उसे वह सु-नारी।
जिसे-कंत-अनुगामिता हो न प्यारी।
इसी से नहीं निज जगह से टली वह।
जहाँ थी वहीं दब बिरह में जली वह।10।

नहीं नारि जो पति हृदय जान पाती।
नहीं आप ही जो उचित कर दिखाती।
कठिन काल में जो नहीं काम आती।
नहीं जो कि पति-हेतु निजता गँवाती।
न कोई सकेगा उसे कुल-बधू कह।
न है प्यार के पंथ की पंथिनी वह।11।

भरी बात में हो बड़ी ही मिठाई।
लगी किन्तु होवे कलेजे में काई।
तनिक स्वार्थ बू प्यार में हो समाई।
दुई की झलक हो दृगों रंग लाई।
भला है न तो ब्याह-मंडप में आना।
भरे लोग में नेह-गाँठें गठाना।12।

रही उर्मिला कुल-बधू आर्य-बाला।
मिला था उसे उर बड़ा प्यार वाला।
इसी से बहुत जी को उसने सम्हाला।
पकड़ कर कलेजा सहा सब कसाला।
बड़े लाड़ औ प्यार के साथ पोसी।
जली औ घुली मोम की बत्तियों सी।13।

न तब भी किसी ने गले आ लगाया।
न पोंछा सलिल जो दृगों ने बहाया।
न कर तक उसे बोधाने को बढ़ाया।
दिखाई पड़ी तक किसी की न छाया।
न सोचा किसी ने कभी आँख भर कर।
गयी बीत क्या इस सरल बालिका पर।14।

बड़ों को सभी आँख है देख पाती।
दुखी दीन की है किसे याद आती।
नहीं दुंद जो रो कलप कर मचाती।
नहीं पीर अपनी किसी को जनाती।
सदा ही यही ढंग जग का दिखाया।
उदधि नाद में कब नदी रव सुनाया।15।