मिथिलाक वसन्त / कांचीनाथ झा ‘किरण’
पिबइत दूध पवित्र मधुर माँ मिथिला केर कोरमे बैसल
के बताह कवि भाँग पीबि स्वागत वसन्त अछि गाबि रहल।
गहि शरदक शशि हँसी स्निग्ध निशि
सुजन-सुमन सन नहि नभ सागर
लोक अनिल कल्लोल ललित छवि
सस्य हरित नहि अवनि आँचर।
नहि वियोगिनी कामिनीक
अलकावलि-आकुल घन झबरल
नहि कालीक हँसी तड़िता
सरिता न धरा धमनी उमड़ल
नहि हेमन्तक सारि-वारि-घर
बाध हमर नन्दन कानन
आषाढ़क मंजुल गाछी नहि
मिथिला भूमिक वृन्दावन
प्रकृति सुन्दरिक अंग अंग केर सुषमा वैभव अछि सूखल
देखितहि स्वागत करइत छल
प्रिय सदृश मानव निश्छल
जनिकर, से दिनकर तीर निकर
करसँ करय प्रहार प्रखर।
प्रावृट केर झंझा बरखासँ
ओ शिशिरक करका कुंझटिकासँ
राखल जिआय जनिका शिशुसभी
से अनल बनल अछि शत्रु अधम।
शास्त्र-सभ्यताकेर निर्झरिणी
कलुष-सिन्धु संसारक तरिणी
तोष शान्ति केर वास अमर
तृण पत्र रचित मुनि मानव घर
निर्म्मम नादिरशाह सदृश ई खोरि-खोरि अछि डाहि रहल
मरकत सन मटर मसुरि लतरल
अवनी पर अम्बर जनि उतरल
अथवा उमड़ल अम्बुधि तरंग
श्रृंगार करए धरणीक अंग।
अकटाक कुसुम कमनीय लाल
नीलम सन तीसीकेर सुमन
सरिसब सुभ सुन्दर पोखराज
सुषमा लखि होइ छल मुग्ध नयन।
मनोहारिणी से धरती नीरस परती पाषाण बनल
झर-झर सन सन, लंकाक पवन
सभी बहय प्रभंजन पछवा सदिखन
आतंक त्रस्त घर-घर मानव
जनि आबि रहल दुर्मद दानव
लजबय गुलाबकें जे कोपल
जननीटा जानए जकर मोल
झरि पड़इछ किशलय भय पीयर
जकरा विलोकि से शिशुक अधर।
दारिद्रय दग्ध हृदय समान अछि भेल एखन सव्रण श्यामल
व्योम बनल जनि बालुक सागर
पाण्डुर शशि ओंघड़ायल गागर
ढौरल झिटुका सन नखत जाल
सतमस्सू शिशु सन भानु बाल।
अछि भूमण्डल बिगड़लि बताहि दिक् पिशाचिनीसँ घेड़ल
दानव-दुहिता सन विसूचिका
संचरय नरकोरक मसूरिका
धुमसय सन्निपात श्वशनक ज्वर
पिजबय उठि दन्त-निकर फणिधर
नोनचट लुŸाी मच्छड़ उड़ीस
मानव-अरिदल केर बनल ईश
मित्र-वधक प्रतिशोध लेल निश्चय आबय घुरि-घुरि ई खल
विकसित सोहिजन किंसुक रशाल
यवन राज्यमे जनि किछु नृपाल
के देखि, देश केर असल हाल
मानि, कुदब जनि अज्ञान बाल
जरइत घरकें बुझइत मसाल
के बताह कवि भांग पीबि स्वागत वसन्त अछि गाबि रहल।
पिबइत दूध पवित्र मधुरमाँ मिथिला केर कोरमे बैसल।