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रत्नसेन-पद्मावती-विवाह-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी


लगन धरा औ रचा बियाहू । सिंघल नेवत फिरा सब काहू ॥
बाजन बाजे कोटि पचासा । भा अनंद सगरौं कैलासा ॥
जेहि दिन कहँ निति देव मनावा । सोइ दिवस पदमावति पावा ॥
चाँद सुरुज मनि माथे भागू । औ गावहिं सब नखत सोहागू ॥
रचि रचि मानिक माँडव छावा । औ भुइँ रात बिछाव बिछावा ॥
चंदन खांभ रचे बहु भाँती । मानिक-दिया बरहिं दिन राती ॥
घर घर बंदन रचे दुवारा । जावत नगर गीत झनकारा ॥

हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।
धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥1॥

रतनसेन कहँ कापड आए । हीरा मोति पदारथ लाए ॥
कुँवर सहस दस आइ सभागे । बिनय करहिं राजा सँग लागे ॥
जाहिं लागि तन साधेहु जोगू । लेहु राज औ मानहु भोगू ॥
मंजन करहु, भभुत उतारहु । करि अस्नान चित्र सब सारहु ॥
काढहु मुद्रा फटिक अभाऊ । पहिरहु कुंडल कनक जराऊ ॥
छिरहु जटा, फुलायल लेहु । झारहु केस, मकुट सिर देहू ॥
काढहु कंथा चिरकुट-लावा । पहिरहु राता दगल सोहावा ॥

पाँवरि तजहु, देहु पग पौरि जो बाँक तुखार ।
बाँधि मौर, सिर छत्र देइ, बेगि होहु असवार ॥2॥

साजा राजा, बाजन बाजे । मदन सहाय दुवौ दर गाजे ॥
औ राता सोने रथ साजा । भए बरात गोहने सब राजा ॥
बाजत गाजत भा असवारा । सब सिंघल नइ कीन्ह जोहारा ॥
चहुँ दिसि मसियर नखत तराई सूरुज चढा चाँद के ताईं ॥
सब दिन तपे जैस हिय माहाँ । तैसि राति पाई सुख-छाहाँ ॥
ऊपर रात छत्र तस छावा । इंद्रलोक सब देखै आवा ॥
आजु इंद्र अछरी सौं मिला । सब कबिलास होहि सोहिला ॥

धरती सरग चहूँ दिसि पूरि रहे मसियार ।
बाजत आवै मंदिर जह होइ मंगलाचार ॥3॥

पदमावति धौराहर चढी । दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढी ॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा । इन्ह मह सो जोगी को अहा ? ॥
केइ सो जोग लै ओर निवाहा । भएउ सूर, चढी चाँद बियाहा ॥
कौन सिद्ध सो ऐस अकेला । जेइ सिर लाइ पेम सों खेला ? ॥
का सौं पिता बात अस हारी । उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी ॥
का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा । जेइ जयमार जीति रन लीन्हा ॥
धन्नि पुरुष अस नवै न आए । औ सुपुरुष होइ देस पराए ॥

को बरिवंड बीर अस , मोहिं देखै कर चाव ।
पुनि जाइहि जनवासहि, सखि,! मोहिं बेगि देखाव ॥4॥

सखी देखावहिं चमकै बाहू । तू जस चाँद, सुरुज तोर नाहू ॥
छपा न रहै सूर-परगासू । देखि कँवल मन होइ बिकासू ॥
ऊ उजियार जगत उपराहीं । जग उजियार , सो तेहि परछाहीं ॥
जस रवि, देखु, उठै परभाता । उठा छत्र तस बीच बराता ॥
ओंही माँझ मा दूलह सोई । और बरात संग सब कोई ।
सहसौं कला रूप विधि गढा । सोने के रथ आवै चढा ॥
मनि माथे, दरसन उजियारा । सौह निरखि नहिं जाइ निहारा ॥

रूपवंत जस दरपन, धनि तू जाकर कंत ।
चाहिय जैस मनोहर मिला सो मन-भावंत ॥5॥

देखा चाँद सूर जस साजा । अस्टौ भाव मदन जनु गाजा ॥
हुलसे नैन दरस मद माते । हुलसे अधर रंग-रस-राते ॥
हुलसा बदन ओप रवि पाई । हुलसि हिया कंचुकि न समाई ॥
हुलसे कुच कसनी-बँद टूटै । हुलसी भुजा, वलय कर फूटे ॥
हुलसी लंक कि रावन राजू । राम लखन दर साजहिं आजू ॥
आजु चाँद-घर आवा सूरू । आजु सिंगार होइ सब चूरू ॥
आजु कटक जोरा है कामू । आजु बिरह सौं होइ संग्रामू ।

अंग-अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ ।
ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ ॥6॥

सखी सँभारि पियावहिं पानी । राजकुँवरि काहे कुँभिलानी ॥
हम तौ तोहि देखावा पीऊ । तू मुरझानि कैस भा जीऊ ॥
सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू । मो कहँ भएउ चाँद कर राहू ॥
तुम जानहु आवै पिउ साजा । यह सब सिर पर धम धम बाजा ॥
जेते बराती औ असवारा । आए सबै चलावनहारा ॥
सो आगम हौं देखति झँखी । रहन न आपन देखौं, सखी ! ॥
होइ बियाह पुनि होइहि गवना । गवनब तहाँ बहुरि नहिं अवना ॥

अब यह मिलन कहाँ होइ ?परा बिछोहा टूटि ।
तैसि गाँठि पिउ जोरब जनम न होइहि छूटि ॥7॥

आइ बजावति बैठि बराता । पान, फूल, सेंदुर सब राता ॥
जहँ सोने कर चित्तर-सारी । लेइ बरात सब तहाँ उतारी ॥
माँझ सिंघासन पाट सवारा । दूलह आनि तहाँ बैसारा ॥
कनक-खंभ लागे चहुँ पाँती । मानिक-दिया बरहिं दिन राती ॥
भएउ अचल ध्रुव जोगि पखेरू । फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू ॥
आजु दैउ हौं कीन्ह सभागा । जत दुख कीन्ह नेग सब लागा ॥
आजु सूर ससि के घर आवा । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा ॥

आजु इंद्र होइ आएउँ सजि बरात कबिलास ।
आजु मिली मोहिं अपछरा, पूजी मन कै आस ॥8॥

होइ लाग जेवनार-पसारा । कनक-पत्र पसरे पनवारा ॥
सोन-थार मनि मानिक जरे । राव रंक के आगे धरे ॥
रतन-जडाऊ खोरा खोरी । जन जन आगे दस-दस जोरी ॥
गडुवन हीर पदारथ लागे । देखि बिमोहे पुरुष सभागे ॥
जानहुँ नखत करहिं उजियारा । छपि गए दीपक औ मसियारा ॥
गइ मिलि चाँद सुरुज कै करा । भा उदोत तैसे निरमरा ॥
जेहि मानुष कहँ जोति न होती । तेहि भइ जोति देखि वह जोती ॥

पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार ।
कनक-पत्र दोनन्ह तर, कनक-पत्र पनवार ॥9॥

पहिले भात परोसे आना । जनहुँ सुबास कपूर बसाना ॥
झालर माँडे आए पोई । देखत उजर पाग जस धौई ॥
लुचुई और सोहारी धरी । एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी ॥
खँडरा बचका औ डुभकौरी । बरी एकोतर सौ, कोहडौरी ॥
पुनि सँघाने आए बसाधे । दूध दही के मुरंडा बाँधे ॥
औ छप्पन परकार जो आए । नहिं अस देख, न कबहूँ खाए ॥
पुनि जाउरि पछियाउरि आई । घिरति खाँड कै बनी मिठाई ॥

जेंवत अधिक सुबासित, मुँह महँ परत बिलाइ ।
सहस स्वाद सो पावै , एक कौर जो खाइ ॥10॥

जेंवन आवा, बीन न बाजा । बिनु बाजन नहिं जेंवै राजा ॥
सव कुँवरन्ह पुनि खैंचा हाथू । ठाकुर जेंव तौ जेमवै साथू ॥
बिनय करहिं पंडित विद्वाना । काहे नहिं जेंवहि जजमाना ?॥
यह कबिलास इंद्र कर बासू । जहाँ न अन्न न माछरि माँसू ॥
पान-फूल-आसी सब कोई । तुम्ह कारन यह कीन्ह रसोई ॥
भूख, तौ जनु अमृत है सूखा । धूप, तौ सीअर नींबी रूखा ॥
नींद, तौ भुइँ जनु सेज सपेती । छाटहुँ का चतुराई एती ? ॥

कौन काज केहि कारन बिकल भएउ जजमान ।
होइ रजायसु सोई बेगि देहिं हम आन ।11॥

तुम पंडित जानहुँ सब भेदू । पहिले नाद भएउ तब वेदू ॥
आदि पिता जो विधि अवतारा । नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा ॥
सो तुम वरजि नीक का कीन्हा । जेंवन संग भोग विधि दीन्हा ॥
नैन, रसन, नासिक, दुइ स्रवना । इन चअरहु संग जेंवै अवना ॥
जेंवन देखा नैन सिराने । जीभहिं स्वाद भुगुति रस जाने ॥
नासिक सबैं बासना पाई । स्रवनहिं काह करत पहुनाई ?॥
तेहि कर होइ नाद सौं पोखा । तब चारिहु कर होइ सँतोषा ॥

औ सो सुनहिं सबद एक जाहि परा किछु सूझि ।
पंडित ! नाद सूनै कहँ बरजेहु तुम का बूझि ॥12॥

राजा ! उतर सुनहु अब सोई । महि डोलै जौ वेद न होई ॥
नाद, वेद, मद, पेंड जो चारी । काया महँ ते, लेहु विचारी ॥
नाद, हिये मद उपनै काया । जहँ मद तहाँ पेड नहिं छाया ॥
होइ उनमद जूझा सो करै । जो न वेद-आँकुस सिर धरै ॥
जोगी होइ नाद सो सुना । जेहि सुनि काय जरै चौगुना ॥
कया जो परम तंत मन लावा । घूम माति, सुनि और न भावा ॥
गए जो धरमपंथ होइ राजा । तिनकर पुनि जो सुनै तौ छाजा ॥

जस मद पिए घूम कोइ नाद सुने पै घूम ।
तेहितें बरजे नीक है, चढै रहसि कै दूम ॥13॥

भइ जेंवनार , फिरा खँडवानी । फिरा अरगजा कुँहकुँह-पानी ॥
फिरा पान, बहुरा सब कोई । लाग बियाह-चार सब होई ॥
माँडौं सोन क गगन सँवारा । बंदनवार लाग सब वारा ॥
साजा पाटा छत्र कै छाँहा । रतन-चौक पूरा तेहि माहाँ ॥
कंचन-कलस नीर भरि धरा । इंद्र पास आनी अपछरा ॥
गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी । दुऔ जगत जो जाइ न छोरी ॥
वेद पढैं पंडित तेहि ठाऊँ । कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ ॥

चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ सँजोग अनूप ।
सुरुज चाँद सौं भूला, चाँदद सुरुज के रूप ॥14॥

दुओ नाँव लै गावहिं बारा । करहिं सो पदमिनि मंगल चारा ॥
चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला । चाँद आनि सूरुज गिउ घाला ॥
सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई । हार नखत तरइन्ह स्यों पाई ॥
पुनि धनि भरि अंजुलि जल लीन्हा । जोबन जनम कंत कह दीन्हा ॥
कंत लीन्ह, दीन्हा धनि हाथा । जोरी गाँठि दुऔ एक साथा ॥
चाँद सुरुज सत भाँवरि लेहीं । नखत मोति नेवछावरि देहीं ॥
फिरहिं दुऔ सत फेर, घुटै कै । सातहु फेर गाँठि से एकै ॥

भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह ।
दायज कहौं कहाँ लगि ? लिखि न जाइ जत दीन्ह ॥15॥

रतनसेन जब दायज पावा । गंध्रबसेन आइ सिर नावा ॥
मानुस चित्त आनु किछु कोई । करै गोसाईं सोइ पै होई ॥
अब तुम्ह सिंघलदीप-गोसाईं । हम सेवक अहहीं सेवकाई ॥
जस तुम्हार चितउरगढ देसू । तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू ॥
जंबूदीप दूरि का काजू ?। सिंघलदीप करहु अब राजू ॥
रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति-जोग जीभ कहँ मोरी ॥
तुम्ह गोसाइँ जेइ छार छुडाई । कै मानुस अब दीन्हि बडाई ॥

जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा जिवन जनम सुखभोग ।
नातरु खेह पायकै, हौं जोगी केहि जोग ॥16॥

धौराहर पर दीन्हा बासू । सात खंड जहवाँ कबिलासू ॥
सखी सहसदस सेवा पाई । जनहुँ चाँद सँग नखत तराई ॥
होइ मंडल ससि के चहुँ पासा । ससि सूरहि लेइ चढी अकासा ॥
चलु सूरुज दिन अथवै जहाँ । ससि निरमल तू पावसि तहाँ ॥
गंध्रबसेन धौरहर कीन्हा । दीन्ह न राजहि, जोगहि दीन्हा ॥
मिलीं जाइ ससि के चहुँ पाहाँ । सूर न चाँपै पावै छाँहा ॥
अब जोगी गुरु पावा सोई । उतरा जोग, भसम गा धौई ॥

सात खंड धौराहर, सात रंग नग लाग ।
देखत गा कबिलासहि, दिस्टि-पाप सब भाग ॥17॥

सात खंड सातौं कबिलासा । का बरनों जग ऊपर बासा ॥
हीरा ईंट कपूर गिलावा । मलयगिरि चंदन सब लावा ॥
चूना कीन्ह औटि गजमोती । मोतिहु चाहि अधिक तेहि जोती ॥
विसुकरमें सौ हाथ सँवारा । सात खंड सातहिं चौपारा ॥
अति निरमल नहिं जाइ बिसेखा । जस दरपन महँ दरसनन देखा ॥
भुइँ गच जानहुँ समुद हिलोरा । कनकखंभ जनु रचा हिंडोरा ॥
रतन पदारथ होइ उजियारा । भूले दीपक औ मसियारा ॥

तहँ अछरी पदमावति रतनसेन के पास ।
सातौ सरग हाथ जनु औ सातौ कबिलास ॥18॥

पुनि तहँ रतनसेन पगु धारा । जहाँ नौ रतन सेज सँवारा ॥
पुतरी गढि गढि खंभन काढी । जनु सजीव सेवा सब ठाढी ॥
काहू हाथ चंदन कै खोरी । कोइ सेंदुर, कोइ गहे सिंधोरी ॥
कोइ कुहँकुहँ केसर लिहै रहै । लावै अंग रहसि जनु चहै ॥
कोई लिहे कुमकुमा चोवा । धनि कब चहै, ठाढि मुख जोवा ॥
कोई बीरा, कोइ लीन्हे-बीरी । कोइ परिमल अति सुगँध-समीरी ॥
काहू हाथ कस्तूरी मेदू । कोइ किछु लिहे, लागु तस भेदू ॥

पाँतिहि पाँति चहूँ दिसि सब सोंधे कै हाट ।
माँझ रचा इंद्रासन, पदमावति कहँ पाट ॥19॥


(1) सोहागू =सौभाग्य या विवाह के गीत । रात = लाल । बिछाय = बिछावन । बंदन बंदनवार

(2) लाए = लगाए हुए । चित्र सारहु = चंदन केसर की खौर बनाओ । अभाउ=न माने वाले, न सोहनेवाले । फुलायल = फुलेल । दगद = दगला, ढीला अंगरखा । पाँवरि =खडाऊँ ।

(3) दर = दल । गोहने =साथ में । नइ = झुककर । मसियर = मसाल । सोहिहला = सोहला या सोहर नाम के गीत । मशियार = मशाल ।

(4) जेहि कहँ ससि गढी = जिसके लिए चंद्रमा (पद्मावती) बनाई गई । जयमार = जयमाल

(5) नाहु =नाथ, पति । निरखि = द्दष्टि गडाकर ।

(6) गाजा = गरजा । अस्टौ भाव = आठों भावों से, कसनी = अँगिया । लंक =कटि और लंका । रावन =(1) रमण करने वाला ।(2) रावण । झँखी =झीखकर, पछताकर ।

(8) चित्तर सारी = चित्रशाला । जोगि पखेरू = पक्षी के समान एक स्थान पर जमकर न रहनेवाला योगी । फूलि = आनन्द से प्रफुल्ल होकर । नेग लागा = सार्थक हुआ , सफल हुआ, हीले लगा ।

(9) पनवार = पत्तल । खोरा = कटोरा । मसियार =मशाल । करा =कला ।

(10) झालर = एक प्रकार का पकवान ,झलरा । माँडे = एक प्रकार की चपाती । पाग = पगडी । लुचुई = मैदे की महीन पूरी । सोहारी = पूरी । कोंवरी = मुलायम । खँडरा = फेंटे हुए बेसन के, भाप पर पके हुए, चौखूँटे टुकडे जो रसे या दही में भिगोए जाते हैं; कतरा रसाज । बचका = बेसन और मैदे को एक में फेंटकर जलेबी के समान टपका घी में छानते हैं, फिर दूध में भिगो कर रख देते हैं। एकोतर सौ = एकोत्तर शत, एक सौ एक । कोहँडौरी = पेठे की बरी । सँधाने = अचार । बसाँधै =सुगंधित । मुरंडा = भुने गेहूँ और गुड के लड्डू; यहाँ लड्डू । जाउरि = खीर पछियाउरि = एक प्रकार का सिखरन या शरबत ।

(11) भूखा.....सूखा = यदि भूख है तो रूखा-सूखा भी मानो अमृत है । नाद = शब्दब्रह्म, अनहत नाद ।

(12) सिरान = ठंडे हुए । पोख = पोषण ।

(13) मद = प्रेम मद । पैंड = ईश्वर की ओर ले जाने वाला मार्ग मोक्ष का मार्ग । उनमद = उन्मत । तिनकर पुनि...छाजा = राजधर्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने तो सोभा देता है । चढे...दूम = मद चडने पर उमंग में आकर झूमने लगता है ।

(14) खँडवानी = शरबत ।

(15) हार नखत....सो पाई = हार क्या पाया मानो चंद्रमा के साथ तारों को भी पाया । त्यों =साथ । घुटै कै = गाँठ को दृढ करके; जैसे, आन गाँठि घुटि जाय त्यों मान गाँठि छुटि जाय ।

(16) आनु = लाए । नतरु = नहीं तो ।

(17) चहुँ पाहाँ = चारों ओर । चाँपै पावै = दबाने पाता है ।

(18) गिलावा =गारा । गच = फर्श । भूले = खो से गए । अछरी =अप्सरा ।

(19) खोरी = कटोरी । सिंधोरी =काठ की सुंदर डिबिया जिसमें स्त्रियाँ ईंगुर या सिंदूर रखती हैं । बीरी = दाँत रँगने का मंजन । परिमल =पुषपगंध, इत्र । सुगंध-समीरी = सुगंध वायुवाला । सौंधे = गंधद्रव्य ।