मुइल जीवन / हंसराज
पड़ाइत छी, पड़ाएल चल जाइत छी
हमरा लोकनि अपना लेल आपनासँ,
अपन परिवार, घर-आँगन, गाम-नगर,
अपन देश कोशसँ पड़ाएल चल जाइत छी हमरा लोकनि।
हमरा लोकनि बेचि लैत छी एक चुटकी नोनक खातिर
जीर-मरीच-ध’नी, मरिचाइक बराबरि,
सागक दोबर, भाँटाक डेढ़िया,
बेचि लैत छी अपन अस्तित्वकें अपना लेल;
आ, गरदनिमे दस टा पजेबा, डाँरमे मनुख भरिक उक्खड़ि,
पैरमे मोन-दस मोनक बटिखारा बान्हि,
हाथमे हथकड़ी, जिह्वा पर काँटी, जाबी लगा क’ मुँह पर
अतल जल-राशिमे कूदि क’ पड़ा जाइत छी।
पड़ा जाइत छी हमरा लोकनि अपनासँ
आ, अपनहिमे बौआइत छी-गामक हाट आ नगरक बाजारमें
करैत छी चीत्कार जन-कल्लोलक तरंगेमें,
तकैत छी अपन आकृति
मिलक चिमनीमे, चकचौन्हीमे फूटल आँखिएँ,
पीबि क’ भरि बोतल।
आ देखैत छी इनार-पोखरिमे डुबैत युवतीकें
अपन सखी-बहिनपासँ चोरा क’
पड़ाइत युवककें गामसँ पटना आ कलकत्ता।
आ, पड़ाइत छी, पड़ाएल चल जाइत छी हमरा लोकनि
ठाढ़ भेल जीबा लेल
आ, जीबैत छी हमरा लोकनि मुइल
मुइल आ, मरैत छी जीविते।