भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लालच / प्रियदर्शन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:12, 4 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रियदर्शन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
जिसने भी कहा
लालच बुरी बला है,
बिल्कुल सही कहा
इसलिए ही नहीं कि लालच के नतीजे बुरे होते हैं
इसलिए कि लालच बिल्कुल पीछा नहीं छोड़ता
डर और ईर्ष्या की तरह इससे भी आप जितना बचना चाहते हैं,
उतना ही यह आपके पीछे लगा रहता है।
इस लालच को साधने में जैसे बीत जाता है सारा जीवन
उम्र बीत जाती है लालच नहीं बीतता.
बस कुछ मुखौटे पहन लेता है
कुछ मद्धिम पड़ जाता है
बहुत छिछली किस्म की कामनाओं से ऊपर उठ जाता है
दरअसल लालच की भी होती हैं किस्में
पैसे का लालच सबसे बड़ा दिखता है, लेकिन सबसे कमज़ोर साबित होता है
प्रेम का लालच सबसे ओछा दिखता है, लेकिन कई बार सबसे मज़बूत साबित होता है
शोहरत का लालच आसानी से नहीं दिखता, लेकिन जड़ जमाए बैठा होता है हमारे भीतर
और
अच्छा दिखने, माने जाने और कहलाने का लालच तो जैसे लालच माना ही नहीं जाता।
शायद इन्हीं आखिरी दो श्रेणियों की वजह से बचा रहता है कविता लिखने का भी मोह,
कवि कहलाने का भी लालच।