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मन का मोल / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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कह सका कौन पेट की बात।
भेद कोई भी सका न खोल।
कौन अपने मतलब को भूल।
किसी के जी को सका टटोल।1।

दिखाता कोई सुन्दर रूप।
सुनाता कोई धन की बात।
बोलियाँ मीठी मीठी बोल।
रिझाता था कोई दिन रात।2।

हाथ में करते थे कुछ लोग।
बड़ी आँखों का जादू डाल।
चला देता था कोई मूठ।
दिखा कर गोरा गोरा गाल।3।

मेघ से काले काले बाल।
देख कोई बनता था मोर।
चंद मुख ओर टकटकी बाँधा।
कहाता कोई 'चतुर' चकोर।4।

दिखा कर गठे हुए सब अंग।
चमकता मुखड़ा बड़ा सुडौल।
ऊब को अनबन को झकझोड़।
जमा देता था कोई धौल।5।

जवानी के मद में हो चूर।
किसी की चाहों भरी उमंग।
किया करती मन माने काम।
दिखा कर बड़े अनूठे रंग।6।

किसी की आँख न पाती देख।
किसी के पास नहीं था कान।
किसी की ऐंठ से गये ऊब।
उमड़ते कितने ही अरमान।7।

न चढ़ता देखे चोखा रंग।
बन गया कोई लापरवाह।
मिली भौंरे सी प्रीति विहीन।
किसी की रस लेने की चाह।8।

मिले कुछ ऐसे भी जो लोग।
दिखाते रहते झूठा प्यार।
पर रही यह झक उन पर रीझ।
दूसरा दे तन मन धन वार।9।

कई कितनी जगहों में घूम।
उमड़ते आते घन से पास।
पर नहीं था, उन में वह नीर।
बुझा देता जो जी की प्यास।10।

भला बदले में लेकर पोत।
कौन देता है मोती तोल।
महँगा हो गयी प्रेम की माँग।
नहीं मिल पाया मन का मोल।11।