रंग लाते नये नये क्यों हैं।
किसलिए हैं उमंग में आते।
जो दिलों में पड़े हुए छाले।
छातियाँ छेद ही नहीं पाते।1।
किसलिए साँस फूलती है तो।
जो सितम की जड़ें नहीं खनतीं।
एक बे पीर के लिए साँसत।
जो नहीं काल साँपिनी बनती।2।
दून की ले, बना बना बातें।
बीज क्यों आन बान का बोएँ।
वेधा देते नहीं कलेजों को।
जो हमारे कलप रहे रोएँ।3।
तो बँधी धक धूल मिट्टी है।
और है सब चटक मटक फीकी।
चूसने की तमाम चाटों को।
कर गयी चट न जो कचट जी की।4।
बात लगती अगर नहीं लगती।
तो कहाएँ न क्यों गये बीते।
निज दुखों का न क्यों पिएँ लहू।
हैं लहू घूँट हम अगर पीते।5।
क्यों न बिन बाल-बाल जाएगा।
बल रहा जो बवाल मुँह तकता।
रंज क्यों जायँगे न पहुँचाये।
रंज जो बन बला नहीं सकता।6।
तो न करते रहें अबस फूँ फूँ
आज हैं फँक से अगर उड़ते।
कढ़ रही गर्म गर्म आहों से।
हैं अंगारे अगर नहीं झड़ते।7।
किसलिए तो बनें जले तन हम।
जल रही हैं अगर नहीं माखें।
आग जो हैं बरस नहीं पातीं।
आँसुओं से भरी हुई आँखें।8।