भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोल गठरी प्यार की / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:17, 10 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश श्रीवास्तव }} {{KKCatNavgeet}} <poem>बहुत ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत कश ले लिए कुंठा के
बहुत जी ली जिंदगी उधार की,
अब खोल गठरी प्यार की।

अब तक बस रातों में जिए, घातों में जिए
गिरगिटी बातों की करामातों में जिए
तुम उजले सूरज को भी छाता दिखाते हो
हम तो नंगे बदन बरसातों में जिए

जब सागर ही भर लिया हो सीने में
तो न चिंता कर तू खार की,
अब खोल गठरी प्यार की।

आँखें बदलीं और बदल गयीं भाषाएं
वक्त क्या बदला बदल गयी परिभाषाएं
जिस दिन से तनिक होश संभाला है
घुट घुट कर मरती देखीं अभिलाषाएं

पतझड़ से समझौता करना बुरा नहीं
जब लताड़ मिले बहार की,
अब खोल गठरी प्यार की।