भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँद का मुँह टेढ़ा नहीं / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:20, 10 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश श्रीवास्तव }} {{KKCatKavita}} <poem>रोशनी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोशनी
किसी तलघर या गोदाम में नहीं
रोशनी भोगने की
नीयत में कैद है।

चाँद न तो बेडौल है
न चाँद का मुँह टेढ़ा है
लेकिन जब/आस-पास/अंदर-बाहर
कोई संगति नहीं होती
तब अपनी ही विसंगतियाँ
चाँद को टेढ़ा और बेडौल बना देती हैं

इसलिए
चाँद को टेढ़ा कहने से पूर्व
अपनी आँखों को/ हर कोण से परखिए
पुतलियों को /हर एंगिल से देखिए
क्योंआकि चाँद तो वही होता है
अवसर दृष्टि ही टेढ़ी हो जाती है।