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भूकंप / कविता वाचक्नवी
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मेरे हृदय की कोमलता को
अपने क्रूर हाथों से
बेध कर
ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया
उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे
बो दिए धुआँ उगलते कल-कारखाने
उत्पादन के सामान सजाए
मेरे पोर-पोर को बींध कर
स्तंभ गाड़े
विद्युतवाही तारों के 
जलवाही धारों को बाँध दिया।
तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावड़ों,
मशीनों, आरियों, बुलडोजरों से
कँपती थरथराती रही मैं ।
तुम्हारे घरों की नींव
मेरी बाहों पर थी
अपने घर के मान में
सरो-सामान में
भूल गए तुम ।
मैं थोड़ा हिली 
तो लो
भरभरा कर गिर गए 
तुम्हारे घर ।
फटा तो हृदय 
मेरा ही ।
 
	
	

