भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते / 'क़मर' मुरादाबादी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:49, 11 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='क़मर' मुरादाबादी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते
तुम अगर नागहाँ नहीं मिलते
आशियाने का रंज कौन करे
चार तिनके कहाँ नहीं मिलते
दास्तानें हज़ार मिलती हैं
साहिब-ए-दास्ताँ नहीं मिलते
यूँ न मिलने के सौ बहाने हैं
मिलने वाले कहाँ नहीं मिलते
इंकिलाब-ए-जहाँ अरे तौबा
हम जहाँ थे वहाँ नहीं मिलते
दोस्तों की कमी नहीं हम-दम
ऐसे दुश्मन कहाँ नहीं मिलते
जिन को मंजिल सलाम करती थी
आज वो कारवाँ नहीं मिलते
शाख-ए-गुल पर जो झूमते थे ‘कमर’
आज वो आशियाँ नहीं मिलते