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हमारे कवि / महेश वर्मा

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क्या कर रहे हैं
क्या उन्होंने लिख लिया यह अँधेरा
जो हमारे भी बीच फैला है ।

उन्होंने आँखें ढांप तो नहीं ली थीं हाथ से
जब आया था प्रकाश ।

वे लिख पाए क्या धूप से भी सुन्दर हँसी
जो फ़ैली हुई थी आकाश पर । उस समय वे
धरती की भीतरी तहों को तो नहीं सोचते थे ।

क्या वे लिख पाए दुःख
जो अब भी आंतरिक से अधिक वाह्य बचे हुए हैं चारों ओर
ठोस शारीरिक दुःख जो छूकर
देखने की ज़द में हैं- जैसे अपने ही माथे का खुला घाव ।

अभी इस वक़्त जब
हौले-हौले हिल रही है रात

कवि क्या कर रहे हैं ।