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कौशल्या / प्रतिभा सक्सेना

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यह भवन बड़ा सूना-सूना लगता है, आँगन में मेरे पौत्र नहीं खेलेंगे,
मैं यहाँ अकेली काट रही अपने दिन, प्रिय पुत्र-वधू के चरण नहीं डोलेंगे!
मै चक्रवर्ति दशरथ की पटरानी हूँ, जीवन कैसे बीता किसने पहचाना,
दो-दो सौतों के साथ सदा सुख बाँटे, ऐसे दिन भी आएँगे किसने जाना?

तीन-सौ पचास नारियाँ जिसने ब्याहीं, उस राजा के पौरुष की बात निराली,
मै तो वस्त्राभूषण पहने महलों में उनकी मर्यादा की करती रखवाली।
भोजन की थाली देख अरुचि-सी होती, आग्रहपूर्वक प्रिय वधू जिमाती थी तब,
पकवान सभी की रुचि के मुदित हृदय से सारे कुटुम्ब की तृप्ति कराती थी तब।

इस राज-भवन में सुख -सरिता बहती थी, चारो वधुयें खिलखिल हँसती थीं हिलमिल,
दिन-रात उड़े जाते थे छू-मन्तर हो, नित नये राग रंगों में डूबी हलचल!
मधुऋतु?अब देखो महलों की बगिया में कैसा वसन्त आया कि अशोक न फूले,
सावन आया, गीतों के बोल न फूटे, रीती हैं तरु की डालें, पडे न झूले!

युग-युग से चूल्हा वहाँ नहीं जलता है, वह बन्द रसोई पड़ी उधर सीता की,
जिसकी सुगन्ध को देव स्वयं लालायित, स्वादों की स्मृति जिह्वा पर पानी लाती।
मैं राज-भवन में सुख-शैया पर सोऊँ, पत्तों में पलते रहें पौत्र कुटिया में,
वे वन में कैसे रहते होंगे जाने हिम में, आतप में या वर्षा की ऋतु में!

अच्छा ही हुआ सिधार गए वे पहले, इतना दुख झेल न पाते दशरथ राजा,
मैं ही बैठी हूँ कुलिश-कठोर हृदय ले, सब कुछ सहने का व्रत मैंने ही साधा।
एकाकी नारी निरी असुर के वश में लेकिन वह हारी नहीं उसी के पुर मे
उसको सम्मान न दे वचनो से बेधा, हे राम, किस तरह बोले तुम कटु स्वर में?

चर, घर-घर की फिर पति-पत्नी की बातें, पति-पत्नी भी जो मनमानी करते हों,
उनकी बातों को राज-काज में लाना, क्या गुप्तचरी ऐसी ही तुम करते हो?
पानी बरसे या हवा चले तो धोबी, बादल को और हवा को भी गरियाता
उसको महत्व देना कितना संगत है, क्या एक बाँट से सबको तोला जाता!

पूरा हिसाब होता है कहे-सुने का, शब्दों की कीमत यहाँ चुकाई जाती,
वाणी वर देती है विवेक-धारी को। पर अविचारी को वही शाप बन जाती!
सहना ही है! कहना क्या अब? फिर किससे? यह वानप्रस्थ की बेला आई मेरी,
प्रिय-पौत्र वधू के साथ जहाँ रहते हों उस आश्रम तक हो जाए यात्रा मेरी!

झर जाय न क्यों अब सूख गई है वंश-वृक्ष की जो डाली,
जीवन के रस से रीत गई,
पीले पातों सी बीत गई,
अब विगत, भविष्यत्, वर्तमान फीके पृष्ठों जैसे खाली!

टीका-
अति व्यस्त दिवस के बाद भवन में देखा, तीनो भाई रोचना चढ़ाये माथे,
विस्मित हो पूछ अचानक राघव बैठे, "भइया यह टीका आया कहो कहाँ से?"

उत्सुक हो राम निहार रहे उनका मुख, शुभ-समाचार सुन पाने की आशा ले!
चुपचाप रहे लक्ष्मण रिपुसूदन दोनो, कुछ क्षण सोचा फिर भरत राम से बोले-

"हम तो सेवक हैं पूज्य, आप हैं राजा, शोभा देतीं हमको ही। यह सब बातें,
कुछ भी न विचारें तात, व्यर्थ की चर्चा, अति तुच्छ, आपकी मर्यादा के आगे!"

फिर मातृ-भवन में देखा माँ कौशल्या, कुल देवों के सम्मुख आँचल फैलाए,
सन्तोष भरी स्मिति से मुख आलोकित प्रार्थना-लीन हो बैठीं दीप जलाए!

"माँ, कुछ विशेष घटना या बात हुई है, उत्सुक हो रहा जानने को मेरा मन?"
"प्रिय पुत्र, तुम्हारा शासन कुशल सभी कुछ! यों ही चलता है जगती का जीवन-क्रम!"

तब हाथ गया अपने सूने माथे पर, चेहरे पर उतरी गहरी-सी परछाईं,
छाती में उमड़ा वेग एक अनजाना चुभती-सी याद जनक-तनया की आई!