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इक उम्र साथ साथ मेरे ज़िंदगी रही / ख़ुर्शीद अहमद 'जामी'
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इक उम्र साथ साथ मेरे ज़िंदगी रही
लेकिन किसी बख़ील की दौलत बनी रही
मेयार-ए-फन पे वक़्त का जादू न चल सका
दुनिया क़रीब हो के बहुत दूर ही रही
महकी हुई सहर से मेरा वास्ता रहा
जलती हुई शबों से मेरी दोस्ती रही
तंहाईयों के दश्त में कुछ फूल से खिले
रक़्साँ शब-ए-फ़िराक़ कोई चाँदनी रही