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मैं तुम्हें याद भी आया के नहीं / फ़ाज़िल जमीली

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मैं तुम्हें याद भी आया के नहीं...

राह चलते या कहीं बैठ के सुस्ताते हुए
आते-जाते हुए, बेवजह कहीं रुकते हुए
सढ़ियाँ चढ़ते हुए, ज़ुल्फ़ को सुलझाते हुए
घर में आए किसी मेहमान की तवाज़ोह करते
चाय देते हुए हाथों से प्याली गिरते
मैं तुम्हें याद भी आया के नहीं...

घूमते-फिरते हुए, लांग-ड्राइव करते
चूड़ियाँ लेते हुए, ईद की शॉपिंग करते
घर से जाते हुए या शाम को घर आते हुए
बेख़याली में किसी ख़याल में खो जाते हुए
दुनियादारी से बहुत दूर निकल जाते हुए
मैं तुम्हें याद भी आया के नहीं...

पिछले दो-चार जो दिन गुज़रे हैं
क्या कहूँ कितने कठिन गुज़रे हैं
इन्तज़ार इतना किया है के सद्दी हो जैसे
बेबसी अपने मुक़द्दर में लिखी हो जैसे