भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आलम तेरी निगह से है सरशार देखना / मह लक़ा 'चंदा'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:34, 30 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मह लक़ा 'चंदा' |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem>...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आलम तेरी निगह से है सरशार देखना
मेरी तरफ़ भी टुक तो भला यार देखना

नादाँ से उक उम्र रहा मुझ को रब्त-ए-इश्क़
दाना से अब पड़ा है सरोकार देखना

गर्दिश से तेरी चश्म के मुद्दत से हूँ ख़राब
तिसपर करे है मुझ से ये इक़रार देखना

नासेह अबस करे है मना मुझ को इश्क़ से
आ जाए वो नज़र तो फिर इंकार देखना

‘चंदा’ को तुम से चश्म से है या अली के हो
ख़ाक-ए-नजफ़ को सुरमा-ए-अबसार देखना