भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रखते हैं मेरे अश्त से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़ / मह लक़ा 'चंदा'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:38, 30 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मह लक़ा 'चंदा' |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem>...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रखते हैं मेरे अश्त से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़
दामन में लिया आपने है दरिया ने गोहर फ़ैज

पुर-नूर अजब क्या है करे मुझ को करम से
रखती है दो आलम पे तेरी एक नज़र फै़ज़

इक जाम पे बख़्शे है यहाँ रूतबा जिस्म को
किस की निगह-ए-मस्त से रखता है ख़ुमर फ़ैज़

महरूम नहीं कोई तेरे ख़्वान-ए-करम से
है हस्त्र ख़ुदाई का ही तुझ पे मगर फै़ज़

‘चंदा’ रहे परवत से तेरे या अली रौशन
ख़ुर्शीद को है दर से तेरे शाम ओ सहर फै़ज