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स्वप्न समय / सविता सिंह

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यूँ स्वप्न से शुरू हुआ यह जीवन
जैसे कि इसके पहले कुछ और न था
चेतना थी तो स्वप्न की ही
नीली सफ़ेद कहीं चितकबरी
किसी भूरे विस्तार में अधलेटी
अलसार्इ उठती फिर गिरती किसी नींद में
विस्तार यानी ख़ालीपन
न रंग न गंध
सरसराती हवा-सी एक हरकत
जिसमें भरता गया अर्थ
यानी कंपन

जिससे स्वप्न-समय बना
नदियाँ और जंगल
और उनमें बहती हवा
स्त्री वासना जीवन असंख्य
उनकी तृष्णा
जितनी बार शब्द हिलते
जितनी बार यह समय
देखता झिलमिल चेतना को
अपनी अलसार्इ आँखों से

वह उठती नग्न उठने की चेष्टा में
जगती फिर गिरती
उसी में
नींद में
विस्तार थी जो रंगहीन गंधहीन
और था वह ग्रीवाविहीन
पहने हार
पहने वस्त्रा जो अशरीरी था

वे स्वप्न आँखें
बादलों से बनीं उन्हीं की तरह जल से भरीं
ढके नदियों जंगलों को
उनके जीवों को
अपनी चादर से
अपनी करुणा से बल्कि
देखना शुरू करती है जो जब से
तब से सृष्टि है यह वैसी
दिखती जैसी उस आर्इने में

जिसमें शब्द और उसके काँपते नकार दिखते हैं
ध्वनि और स्वर
चीत्कार और करुण पुकार से फिर
शुरू होता है वह सब कुछ
जिसे हम जानते हैं—
वह स्वप्न
जिसे न आँखें चाहिए
न रात