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कारतूस / सविता सिंह
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इतने वर्षों बाद
हमारे जंगलों खदानों खंदकों
आदि जीवन के झंखाड़ो से होता हुआ
उतर आया है आख़िर सारा ख़ून
हमारी बहसों की मासूमियत पर पसरता
खीजता हमारी विस्मृति पर
याद दिलाता किसी हिस्पानी कविता में
सुरक्षित एक बिम्ब की
जिसमें स्वप्न और दु:स्वप्न
एक ही रात के दो फूल होते हैं
एक ही देह की दो नग्नताएँ
जिन्हें अलग करने वाला कवि
अपने हाथों को लहूलुहान कर लेता है
फिर गाता है रात के कगार पर खड़े होकर
दु:स्वप्न के सहज फूलों के लिए
जो उसके हाथों नष्ट हो गए
रात देखती है अपनी सफ़ेद सुबहों की तरफ़
आश्वस्त बचे फूलों को सहेजे
चुपचाप वर्षों से पड़ा कारतूस
बन्दूक में आग हो जाता है
इतना सारा ख़ून कहाँ ठहरा हुआ था
सोचता है एक पक्षी उड़ता जाता हुआ जंगल की बगल से