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घर-5 / अरुण देव
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दीवारें जब उठीं तो सब आए.. मेघ, कभी घने कभी भरे
सूरज इस तरह तपा कि बस
हवा कुछ पत्ते उड़ा लाई घर में
ईंट, बालू, रेत सब सोच में पड़ गए
राज-मिस्त्री अपनी घनी मूँछों में मुस्काया उसे पता था लोहे का
लोहा धौंकनी से अभी-अभी बाहर निकला था
उसके चेहेरे पर आब
शरीर पर रुआब
उसके साँवले जिस्म पर धारियाँ थीं लोहार के चोटों की
लोहार ने उसे तने रहना जतन से सिखाया था
सबसे पहले ईंट गई उसके पास और उसने अपने पुराने सम्बन्धों का वास्ता दिया
जब दोनों साथ रहते थे
पर ईंट भी अब कितनी बदल गई थी
रेत रोड़ी और सीमेंट के बीच अपने को गुम करने का आमन्त्ररण लिए उसका पुराना मित्र खड़ा था
दीवारों पर छत
छत में सचेत लोहे को इस तरह मिला आजीवन निर्वासन