त्याग भूमि / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
बन गया मूर्तिमान आतंक
बहु प्रबल भूत पाप-परिपाक;
सत्यता-सूत्र हो गया छिन्न;
धूल में मिली धर्म की धाक।
किंतु किसके खुल पाए नेत्र,
किया किस जन ने उसका त्राण,
बिंधा किस धर्म वीर का मर्म,
दिया किस धर्म-प्राण ने प्राण।
पूजता जिसको निर्जर-वृंद,
अब कलुष-जर्जर है वह जाति;
नरक-दुख का वह बना निकेत,
स्वर्ग-जैसी जिसमें थी शांति।
देख, यह कौन हुआ कटिबध्द,
किया किस जन ने कर्म महान;
हो गया सत्य भाव से कौन
त्याग-बलि-वेदी पर बलिदान।
जहाँ थे साम्यवाद के सिध्द,
जहाँ का था स्वतंत्रता-मंत्र;
वहन कर पराधीनता-वृत्ति
वहाँ का जन-जन है परतंत्र।
पर इसे कौन सका अवलोक,
आज भी निद्रा हुई न भंग;
न संकट-पोत कर सकी भग्न
त्याग-जल-निधि-उत्ताल तरंग।
लोक-प्रियता है विदलितप्राय,
है प्रबल भूत विविध परिताप;
आर्य-गौरव-रवि है गत-तेज,
काल-कवलित है कीर्ति-कलाप।
खड़े हो सके न तो भी कान,
गर्म हो सका न तो भी रक्त;
रगों में सकी न बिजली दौड़,
हुआ उर शतधा नहीं विभक्त।
हुआ खंडित मणि-मंडित क्रीट,
हो गया छिन्न रत्न-चय-हार;
छिन गया पारस बहु-श्रम-प्राप्त,
लुटा कनकाचल-सम संभार।
कर सका कौन आत्म-उत्सर्ग,
किया किसने उर-रक्त प्रदान;
जाति देकर कपाल की माल
कर सकी कब शिव का सम्मान।
देश जिससे बनता है स्वर्ग,
कहाँ है उर में वह अनुराग;
त्यागियों का सुनते हैं नाम,
कहाँ है त्याग भूमि में त्याग।