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सम्मान / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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बरस जाती है रुचिकर वारि
विनय की मधुर वचन की खोज;
मिले निर्मल-उर-रवि-कर मंजु
विलसता है सम्मान-सरोज।
नहीं होता कीने के पास
अछूते आव-भगत का वास;
बुझी कब बिना समादर-ओस
किसी सम्मान-सुमन की प्यास?
ललित हो क्यों पाता सुविकास
स्नेहमय मधुर मिलन नभ अंक।
मधुरता-सुधा बरसता कौन
बिना सरसे सम्मान-मयंक?
दंभ का देखे असरस भाव
ठहरती कैसे सुमति समीप;
क्यों न घिरता अविनय-तम-तोम,
है न बलता सम्मान-प्रदीप।
पड़ी पत्तों-फूलों पर आँख,
मूल को सका न मन पहचान;
क्यों बने सफल कामना-बेलि,
मिल सका नहीं सलिल-सम्मान।