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पद्मावति-गोरा-बादल-संवाद-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

सखिन्ह बुझाई दगध अपारा । गइ गोरा बादल के बारा ॥
चरन-कँवल भुइँ जनम न धरे । जात तहाँ लगि छाला परे ॥
निसरि आए छत्री सुनि दोऊ । तस काँपे जस काँप न कोऊ ॥
केस छोरि चरनन्ह-रज झारा । कहाँ पावँ पदमावति धारा ?॥
राखा आनि पाट सोनवानी । बिरह-बियोगिनि बैठी रानी ॥
दोउ ठाढ होइ चँवर डोलावहिं । "माथे छात, रजायसु पावहिं ॥
उलटि बहा गंगा कर पानी । सेवक-बार आइ जो रानी ॥

का अस कस्ट कीन्ह तुम्ह, जो तुम्ह करत न छाज ।
अज्ञा होइ बेगि सो , जीउ तुम्हारे काज " ॥1॥

कहो रोइ पदमावति बाता । नैनन्ह रकत दीख जग राता ॥
उथल समुद जस मानिक-भरे । रोइसि रुहिर-आँसु तस ढरे ॥
रतन के रंग नैन पै वारौं । रती रती कै लोहू ढारौं ॥
भँवरा ऊपर कँवल भवावौं । लेइ चलु तहाँ सूर जहँ पावौं ॥
हिय कै हरदि, बदन कै लोहू । जिउ बलि देउँ सो सँवरि बिछोहू ॥
परहिं आँसु जस सावन-नीरू । हरियरि भूमि, कुसुंभी चीरू ॥
चढी भुअँगिनि लट लट केसा । भइ रोवति जोगिनि के भेसा ॥

बीर बहूटी भइ चलीं, तबहुँ रहहिं नहिं आँसु ।
नैनहिं पंथ न सूझै , लागेउ भादौं मासु ॥2॥

तुम गोरा बादल खँभ दोऊ । जस रन पारथ और न कोऊ ॥
ढुख बरखा अब रहै न राखा । मूल पतार, सरग भइ साखा ॥
छाया रही सकल महि पूरी । बिरह-बेलि भइ बाढि खजूरी ।
तेहि दुख लेत बिरिछ बन बाढे । सीस उघारे रोवहिं ठाढे ॥
पुहुमि पूरि, सायर दुःख पाटा । कौडी केर बेहरि हिय फाटा ॥
बेहरा हिये खजूर क बिया । बेहर नाहिं मोर पाहन-हिया ॥
पिय जेहि बँदि जोगिनि होइ धावौं । हौं बँदि लेउँ, पियहि मुकरावौं ।

सूरुज गहन-गरासा, कँवल न बैठे पाट ।
महूँ पंथ तेहि गवनब, कंत गए जेहि बाट ॥3॥

गोरा बादल दोउ पसीजे । रोवत रुहिर बूडि तन भीजे ॥
हम राजा सौं इहै कोहाँने । तुम न मिलौ, धरिहैं तुरकाने ।
जो मति सुनि हम गये कोहाँई । सो निआन हम्ह माथे आई ॥
जौ लगि जिउ, नहिं भागहिं दोऊ । स्वामि जियत कित जोगिनि होऊ ॥
उए अगस्त हस्ति जब गाजा । नीर घटे घर आइहि राजा ॥
बरषा गए, अगस्त जौ दीठिहि । परिहि पलानि तुरंगम पीठिहि ॥
बेधों राहु, छोडावहुँ सूरू । रहै न दुख कर मूल अँकूरू॥

सोइ सुर, तुम ससहर, आनि मिलावौं सोइ ।
तस दुख महँ सुख उपजै, रैनि माहँ दिनि होइ ॥4॥

लीन्ह पान बादल औ गोरा । "केहि लेइ देउँ उपम तुम्ह जोरा ?॥
तुम सावंत, न सरवरि कोऊ । तुम्ह हनुवंत अंगद सम दोऊ ॥
तुम अरजुन औ भीम भुवारा । तुम बल रन-दल-मंडनहारा ॥
तुम टारन भारन्ह जग जाने । तुम सुपुरुष जस करन बखाने ॥
तुम बलबीर जैस जगदेऊ । तुम संकर औ मालकदेऊ ॥
तुम अस मोरे बादल गोरा । काकर मुख हेरौं, बँदिछोरा ? ॥
जस हनुवँत राघव बँदि छोरी । तस तुम छोरि मेरावहु जोरी ॥

जैसे जरत लखाघर, साहस कीन्हा भीउँ ।
जरत खंभ तस काढहु, कै पुरुषारथ जीउ ॥5॥

रामलखन तुम दैत-सँघारा । तुमहीं घर बलभद्र भुवारा ॥
तुमही द्रोन और गंगेउ । तुम्ह लेखौं जैसे सहदेऊ ॥
तुमही युधिष्ठिर औ दुरजोधन । तुमहिं नील नल दोउ संबोधन ॥
परसुराम राघव तुम जोधा । तुम्ह परतिज्ञा तें हिय बोधा ॥
तुमहिं सत्रुहन भरत कुमारा । तुमहिं कृस्न चानूर सँघारा ॥
तुम परदुम्न औ अनिरुध दोऊ । तुम अभिमन्यु बोल सब कोऊ ॥
तुम्ह सरि पूज न विक्रम साके । तुम हमीर हरिचँद सत आँके ॥

जस अति संकट पंडवन्ह भएउ भीवँ बँदि छोर ।
तस परबस पिउ काडहु, राखि लेहु भ्रम मोर "॥6॥

गोरा बादल बीरा लीन्हा । जस हनुवंत अंगद बर कीन्हा ॥
सजहु सिंघासन, तानहु छातू । तुम्ह माथे जुग जुग अहिबातू ॥
कँवल-चरन भुइँ धरि दुख पावहु । चढि सिंघासन मँदिर सिघावहु ॥
सुनतहिं सूर कँवल हिय जागा । केसरि-बरन फूल हिय लागा ॥
जनु निसि महँ दिन दीन्ह देखाई । भा उदोत, मसि गई बिलाई ॥
चढी सिंघासन झमकति चली । जानहुँ चाँद दुइज निरमली ॥
औ सँग सखी कुमोद तराईं । ढारत चँवर मँदिर लेइ आईं ॥

देखि दुइज सिंघासन संकर धरा लिलाट ।
कँवल-चरन पदमावती लेइ बैठारी पाट ॥7॥


(1) बारा = द्वार पर । काँपे = चौंक पडे । सोनवानी = सुनहरी । माथे छात = आपके माथे पर सदा छत्र बना रहे ! बार = द्वार । का = क्या । तुम्ह न छाज = तुम्हें नहीं सोहता ।

(2) दीख = दिखाई पडा । राता = लाल । उलथ = उमडता है । रुहिर । रंग = रंग पर । पै = अवश्य; निश्चय । भँवरा = रत्नसेन । कँवल = नेत्र (पद्मिनी के)। हरदि = कमल के भीतर छाते का रंग पीला होता है । बदन कै लोहू = कमल के दल का रंग रक्त होता है ।

(3) खंभ = खंभे, राज्य के आधार-स्वरूप । पारथ = पार्थ, अर्जुन । बरखा = बर्षा में । तेहि दुख लेत ...बाढे = उसी दुःख की बाढ को लेकर जंगल के पेड बढकर इतने ऊँचे हुए हैं । बेहरि = विदीर्ण होकर । जेहि बँदि = जिस बंदीगृह में । मुकरावौं = मुक्त कराऊँ,छुडाऊँ ।

(4) तुरकान = मुसलमान लोग । उए अगस्त = के उदय होने पर, शरत् आने पर । हस्ति जब गाजा = हाथी चढाई पर गरजेंगे; या हस्त नक्षत्र गरजेगा । आइहि = आवेगा । दीठिहि = दिखाई देखा । परिहि पलानि...पीठिहि = घोडों की पीठ पर जीन पडेगी चढाई के लिये घोडे कसे जायँगे । अँकुर । ससहर = शशधर, चंद्रमा ।

(5) लीन्ह पान = बीडा लिया, प्रतिज्ञा की । केहि...जोरा = यहाँ से पद्मावती के वचन हैं । सावंत = सामंत । भुवारा = भूपाल । टारन भारन्ह = भार हटानेवाले । करन =कर्ण । मालकदेऊ = मालदेव । बँदिछोर = बंधन छुडानेवाले । लखाघर = लाक्षागृह । खंभ = राज्य का स्तंभ, रत्नसेन ।

(6) दैत सँभारा = दैत्यों का संहार करनेवाले । गंगेऊ = गाँगेय, भीष्म-पितामह । तुम्ह लेखौं = तुमको समझती हूँ । संबोधन = ढाढस देनेवाले । तुम्ह परतिज्ञा = तुम्हारी प्रतिज्ञा से । बोधा = प्रबोध, तसल्ली । सत आँके = सत्य की रेखा खींची है । भ्रम = प्रतिष्ठा, सम्मान ।

(7) बर = बल । अहिबातू = सौभाग्य सोहाग । उदोत = प्रकाश । देखि दुइज...लिलाट = दूज के चंद्रमा को देख उसे बैठने के लिये शिवजी ने अपना ललाट- रूपी सिंहासन रखा अर्थात् अपने मस्तक पर रखा ।