भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वीणा-झंकार / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:23, 19 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं लुभा लेता है उर को ललित लयों से पूरित गान;
मोह नहीं मानस लेती है सरस कंठ की सुंदर तान।
अंतर धवनित नहीं होता है सुने स्वर्ग धवनिमय आलाप;
नहीं अल्प भी मुग्ध बनाता अति मंजुल स्वर-ताल-मिलाप।
मौन हो गयी मंजु मुरलिका, टूटे हैं सितार के तार;
बंद हुई-सी है दिखलाती बहती हुई सुधा की धार।
रही नहीं अब वह प्रफुल्लता, रहा नहीं अब वह उत्साह;
नहीं प्रवाहित हो पाता है अब उन में आनंद-प्रवाह।
छिन्न हुआ सुख-सूत्र हमारा, धु ला शांति-शिर का सिंदूर;
ज्ञान-नयन की जगतरंजिनी ज्योति हुई जाती है दूर।
हुआ भाल का अंक कलंकित बहु अनुकूल काल प्रतिकूल;
झोंक रही है चित-आकुलता भावुकता आँखों में धूल।
रहा नहीं अब हृदय वह हृदय, रुध्द हुई उन्नति की राह;
चाव हो गया चूर, किंतु चिंतित चित को है इतनी चाह।
होवे किसी मंजु वीणा की लोक-चकित-कर वह झंकार,
जिससे हो जावे भारत के जन-जन में जीवन-संचार।