Last modified on 20 जुलाई 2013, at 19:06

एक प्राचीन नदी / दिनकर कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:06, 20 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनकर कुमार |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> ए...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक प्राचीन नदी इस कदर तटस्थ कैसे हो सकती है ?

कुछ बोले बग़ैर विरोध जतलाए बग़ैर
चुपचाप कैसे बहती रह सकती है
कैसे सुन सकती है किनारे के लोगों का हाहाकार

जबकि लोग दु:ख से कातर होकर उसी को पुकारते हैं
उसी से बाँटना चाहते हैं उदासी
अभाव की पीड़ा अन्याय का दंश
नींद के बग़ैर काटी गई रातों का अन्धेरा

जबकि लोग चाहते हैं थोड़ी-सी तसल्ली
थोड़ा-सा अपनापन, यातनाओं से मुक्ति
भूख और प्यास का समाधान जीवन का गान
सुरक्षा का वायदा, मर्यादा का जीवन

जबकि लोग प्राचीन नदी को पूर्वज की तरह
अपना मानते हैं, देवता की तरह पवित्र मानते हैं
अपने स्वप्नों और आकांक्षाओं का सहचर मानते हैं
अपने दिन और रात, धरती और सूरज की तरह शाश्वत मानते हैं

एक प्राचीन नदी इस कदर तटस्थ कैसे हो सकती है ?