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सुबह हो रही है / शिरीष कुमार मौर्य

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सुबह हो रही है मैं कुत्‍ता घुमाने के अपने ज़रूरी काम से लौट आया
घर वापस
घर में बनती हुई चाय की ख़ुशबू
और पत्‍नी की इधर से उधर व्‍यस्‍त आवाजाही
आश्‍वस्‍त करती है मुझे
कि यह सुबह ठीक-ठाक हो रही है

यह इसी तरह होती रही तो घर की सीमित दुनिया में ही सही
एक अरसे बाद मैं कह पाऊँगा अपने सो रहे बेटे से
कि उठो बेटा सुबह हो गई
वरना अब तक तो कहता रहा हूँ उठो बेटा बहुत देर हो गई

रात होती है तो सुबह भी होनी चाहिए
पर वह होती नहीं अचानक लगता है दिन निकल आया है बिना सुबह हुए ही
रात के बाद दिन निकलना खगोल-विज्ञान है
जबकि सुबह होना उससे भिन्‍न धरती पर एक अलग तरह का ज्ञान है

इन दिनों मेरे हिस्‍से में यह ज्ञान नहीं है
सुदूर बचपन में कभी देखी थी होती हुई सुबहें
अब उनकी याद धुँधली है

पगली है मेरी पत्‍नी भी
मुझ तक ही अपनी समूची दुनिया को साधे
कितनी आसानी से कह देती है
मुझे उठाते हुए उठो सुबह हो गई

मैं उसे सुबह के बारे में बताना चाहता हूँ
रेशा-रेशा अपने लोगों की ज़िन्‍दगी दिखाना चाहता हूँ
जिनकी रातें जाने कब से ख़त्‍म नहीं हुईं
बस दिन निकल आया
और वे रात में जानबूझ कर छोड़ी रोटी खाकर काम पर निकल गए
जबकि रात ही उन्‍हें
उसे खा सकने से कहीं अधिक भूख थी

मेरी सुबह एक भूख है
कब से मिटी नहीं
जाने कब से मै भी रोज़ रात एक रोटी छोड़ देता हूँ
सुबह की इस भूख के लिए

पर यह एक घर है जिसमें रोटी ताज़ी बन जाती है
मैं रात की छोड़ी रोटी खा ही नहीं पाता
और फिर दिन भर भूख से बिलबिलाता हूँ

मेरी सुबह कभी हो ही नहीं पाती
वह होती तो होती थोड़ी अस्‍त–व्‍यस्‍त
बिख़री-बिख़री
किसी मनुष्‍य के निकलने की तरह मनुष्‍यों की धरती पर

जबकि मैं नहा-धोकर
लक-दक कपड़ों में
अचानक दिन की तरह निकल जाता हूँ काम पर