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बर्क़ को जितनी शोहरत मिली / 'फना' निज़ामी कानपुरी
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बर्क़ को जितनी शोहरत मिली
आशियाँ की ब-दौलत मिली
ज़ब्त-ए-ग़म की ये क़ीमत मिली
बे-वफ़ाई की तोहमत मिली
उन को गुल का मुकद्दर मिला
मुझ को शबनम की क़िस्मत मिली
क़ल्ब-ए-मै-ख्वार को छोड़ कर
मुझ को हर दिल में नफ़रत मिली
उम्र तो कम मिली शम्मा को
ज़िंदगी खूब-सूरत मिली
मौत लाई नई ज़िंदगी
मैं तो समझा था फ़ुर्सत मिली
हर गुनह-गार को ऐ ‘फ़ना’
गोद फैलाए रहमत मिली