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दयार-ए-जिस्म से सहरा-ए-जाँ तक / रफ़ीक राज़
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दयार-ए-जिस्म से सहरा-ए-जाँ तक
उडूँ मैं ख़ाक सा आख़िर कहाँ तक
कुछ ऐसा हम को करना चाहिए अब
उतर आए ज़मीं पर आसमाँ तक
बहुत कम फासला अब रह गया है
बिफरती आँधियों से बादबाँ तक
मयस्सर आग है गुल की न बिजली
अँधेरे में पड़े हैं आशियाँ तक
ये जंगल है निहायत ही पुर-असरार
क़दम रखती नहीं इस में ख़िजाँ तक
वहीं तक क्यूँ रसाई है हमारी
नुक़ूश-ए-पा ज़मीं पर हैं जहाँ तक
निकल आओ हिसार-ए-ख़ामुशी से
जो दिल में है वो लाओ भी ज़बाँ तक
यहाँ शैताँ प है इक लरज़ा तारी
नहीं उठता चराग़ों से धुआँ तक