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ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है / अहमद नदीम क़ासमी
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ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है ।
साँस तलवार हुई जाती है |
जिस्म बेकार हुआ जाता है,
रूह बेदार हुई जाती है |
कान से दिल में उतरती नहीं बात,
और गुफ़्तार हुई जाती है |
ढल के निकली है हक़ीक़त जब से,
कुछ पुर-असरार हुई जाती है |
अब तो हर ज़ख़्म की मुँहबन्द कली,
लब-ए-इज़हार हुई जाती है |
फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम',
राह दुश्वार हुई जाती है |