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धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा / 'साग़र' आज़मी
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धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
वो कोई और नहीं मेरा ही साया होगा
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श है धुंदले धुंदले
उस ने लिख लिख के मेरा नाम मिटाया होगा
जिन के होंटो पे तबस्सुम है मगर आँख है नम
उस ने ग़म अपना ज़माने से छुपाया होगा
बे-तबल्लुक़ सी फ़जा होगी रह-ए-गुबऱ्त में
कोई अपना ही मिलेगा न पराया होगा
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
उस के हाथों से कभी फूल भी आया होगा
मेरी ही तरह मेरे शेर हैं रूसवा ‘साग़र’
किस को इस तरह मोहब्बत ने सुनाया होगा