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प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे / 'साग़र' आज़मी
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प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
इक ज़माना तेरी आँखों में समाना चाहे
ऐसी लहरों में नदी पार की हसरत किस को
अब तो जो आए यहाँ डूब ही जाना जाहे
आज बिकने सर-ए-बाजार मैं ख़ुद आया हूँ
क्यूँ मुझे कोई ख़रीदार बनाना चाहे
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क तो अब भी काएम
तू मुझे चाहे मगर तुझ को ज़माना चाहे
कभी इज़हार-ए-मोहब्बत कभी शिकवों के लिए
तुझ से मिलने का कोई रोज़ बहाना चाहे
जिस को छुने से मिरा जिस्म सुलग उट्ठा था
दिल फिर इक बार उसी छाँव में जाना चाहे
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ ‘सागर’
जैसे पानी में कोई आग लगाना चाहे