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फ़स्ल-ए-गुल साथ लिए बाग़ में क्या आती है / शेख़ अली बख़्श 'बीमार'

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फ़स्ल-ए-गुल साथ लिए बाग़ में क्या आती है
बुलबुल-ए-नग़मा-सारा रू-ब-क़जा आती है

दिल धड़कता है ये कहते हुए उस महफिल में
याँ किसी को ख़फ़्काँ की भी दवा आती है

आज वो शोख़ है और कसरत-ए-आराइश है
देख किस वास्ते पिसने को हिना आती है

क्या खुले बाग़ में वो चश्म-ए-हिजाब-आलूदा
आँख उठाते हुए नर्गिस को हया आती है

जाँ-कनी हुस्न-परस्तों को गिराँ क्या गुज़रे
भेस में हूर-ए-बहिश्ती के क़ज़ा आती है

इस लिए रश्क-ए-चमन बाग़ में गुल हँसते हैं
कि उड़ाती तिरी रफ़्तार-ए-सबा आती है

मर्ज़-ए-इश्क से ‘बीमार’ जो घबराता है
यार कहता है मुझे ख़ूब दवा आती है