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परिवर्तन - 3 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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वासनाएँ होवें सुरभित,
कामनाएँ हों मंजुलतम;
भावनाएँ हों भाव-भरित,
कल्पनाएँ हों कुसुमोपम।
कमल-मुख सदा मिले विकसित,
कालिमा लगे न कुम्हलाए;
नयन रस-भरे रहें, मोती
बूँद आँसू की बन जाए।
हँसी बिजली-जैसी चमके,
किंतु सरसे हो रस-धारा;
दाँत कोई क्यों गड़ जाए
बने मोती-जैसा प्यारा।
भुजा क्यों पाश रहे बनती,
ललित लतिका-सी कहलावे;
रहे माखन-सा मृदुल हृदय,
कभी पत्थर क्यों हो जावे।
पिता जो है सुर-सरिता का,
चाल पापी की वह न चले;
पाँव सरसीरुह-सा कहला
क्यों कलेजा कोई कुचले।
बने नवनी-सा पवि मानस,
सुधा-रस-पूरित पावक तन;
लगें काँटे कुसुमों-जैसे,
प्रभो, ऐसा हो परिवर्तन।