विविध विषय / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
लोग बोली बोलेंगे, करेंगे बोलती तो बंद,
बाल-बाल बीनेंगे बला जो बन जाएँगे;
चाल जो चलेंगे, तो चलेंगे हम लाखों चाल,
मुँह नोच लेंगे, कभी मुँह जो बनाएँगे।
'हरिऔधा' वैरियों को दम लेने देंगे नहीं,
आँख तो निकाल लेंगे, आँख जो दिखाएँगे;
बात-बात ही में बात उनकी बिगाड़ देंगे,
सौ-सौ बात एक बात के कहे सुनाएँगे।
कामद कला से कांत कलित कलेवर है,
कमनीय कांत कौमुदी है रमी अंक में;
भावमयी मत्तता मधुर भूत माधुरी है,
लोक लोभनीयता है कल्पना कलंक में।
'हरिऔधा' सरसे बरसता सरस रस,
बिकच सरोज-सा लसा है भाव अंक में;
विबुध-विमोहिनी विभूति बहुधा है बनी,
वसुधा सुधा है मंजु मानस मयंक में।
बहु वंदनीय जन द्वारा वंदनीय बने,
वंकता अवंकता हुई है बाल-वंक की;
लोकपति लोचन कहाए मुख लाली बची,
कलित कला में डूबी कालिमा कलंक की।
'हरिऔधा' पाए द्विजराज-सा पवित्र पद,
वंचना पुनीत बनी पूत रुचि अंक की;
पाप-पंक-मज्जित हुए भी न हुई मलीन,
भव-भाल-अंक बनी महिमा मयंक की।
आलस-तिमिर-तोम मिहिर मरीचियाँ हैं,
बहु विधा बाधा विहगावलि तुफंगें हैं;
उर-सर-विलसित विलुलित वीचियाँ हैं,
मानस-गगन में विराजित पतंगें हैं।
'हरिऔधा' सुरभि सुरुचि सुमनालि की हैं,
प्रचुर प्रयास-पयोनिधि की तरंगें हैं;
हास-भरी विविध विलास-भरी आस-भरी,
यौवन-विकास-भरी युवक-उमंगें हैं।
ज्वालामुखी-ज्वाल-माल-सी हैं बड़ी विकराल,
महा काल-कर की अकुंठित तुफंगें हैं;
फुँकरत शेष के सहसो फन की है फूँक,
अग्निमयी प्रलय प्रभंजन-तरंगें हैं।
'हरिऔधा' विदित कराल कालव्यालिनी हैं,
पातकी प्रकांड गिरिध्वंसिनी सुरंगें हैं;
भैरव भयंकरी अशंकरी कपालिका-सी,
लोक-प्रलयंकरी युवक की उमंगें हैं।
तम-तोम काँप उठा, महि मुसुकाने लगी,
उर में समीर के निवास किया रस ने;
विकसे प्रसून, विटपावलि विकच बनी,
लता-बेलि-तन में विलास लगा बसने।
'हरिऔधा' उमगी दिगंगना विहँस उठी,
गगन में विपुल विनोद लगा लसने;
भागी जाती यामिनी के पीछे पड़े तारे देख,
खिल गयी चाँदनी मयंक लगा हँसने।
विबुध-समूह हो विवेकी लोक वंदनीय,
नेता मतिमान नीति-नियम-निरत हो;
जन-जन में हो नवजीवन विराजमान,
समय-प्रवाह जनता को अवगत हो।
'हरिऔधा' लोक कमनीय कामना है यही,
युवक-समाज धीर, वीर, धर्म-रत हो;
देश औ' विदेश की विलोके वर्तमान दशा,
सच्ची देश-सेवा देश-सेवक का व्रत हो।
जो न सँभलेंगे, मुँह के बल गिरेंगे क्यों न,
ठीक न चलेंगे, ठोकरें तो क्यों न खाएँगे;
बात-बात में जो बहँके, तो क्यों रहेगी बात,
बात बिगड़ेगी क्यों न, बात जो बनाएँगे।
'हरिऔधा' बिना मुँह खोले क्यों खुलेंगे भेद,
आँख न खुली, तो कैसे खुल खेल पाएँगे;
रंग उतरा, तो कैसे फिर से चढ़ेगा रंग,
रंग बिगड़ा, तो कैसे रंग दिखलाएँगे।
खाइए न मुँह की, बखेरिए न वैर-काँटे,
कर लाल आँख लहू संगों का न गारिए;
लाग से लगाइए न आप घर ही में आग,
ऊब आप ही न पत अपनी उतारिए।
'हरिऔधा' सोचिए, बिगाड़िए न बातें बनीं,
जोम से न हित की जमी जर उखारिए;
आँख होते करिए न छाती के छतों में छेद,
छूतछात से बच अछूत को उतारिए।