Last modified on 30 जुलाई 2013, at 18:22

ख़ूनी क़िला / 'वामिक़' जौनपुरी

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:22, 30 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='वामिक़' जौनपुरी }} {{KKCatNazm}} <poem> बहुत ही ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बहुत ही सख़्त बहुत ही तवील है ये घड़ी
इस अहद-ए-क़हक़री का हर क़दम है एक सदी
ये अह्द जिस पे कई नस्लों की है गर्द पड़ी

ये पीर-ज़ाल ये क़िला कनार आब-ए-रवाँ
भड़कते शोलों की मानिंद जिस का हर गुम्बद
ये कंगरे हैं कि हैं भट्टियों के अँगारे
जला के रख दिए जिन की तपिश ने लाखों मकाँ

ये है अलामत-ए-फ़िस्ताइयत गिराओ से
हमारे बच्चों के स्कूल से हटाओ इसे
ये ख़ूनी-क़िला का फाटक है या दहान-ए-जीम
फ़सील-ए-संग इबारत है ख़ूँ के धब्बों से
दिए लहूँ के फ़रोज़ाँ किए हुए हर ताक़
है जिन के सामने ख़ीरा तला ओ गौहर ओ सीम
सदा-ए-रक़्स निकलती हुई झरोंको से
किसी हसीना-ए-फ़िरऔन का महल जैसे
सुतून मरमरीं अंगड़ाई ले के नींद में चूर
लिबास-ए-बरहनगी में निहाँ क़लो-पत्रा
मियान-ए-नील कोई लाश देख कर हँस दे

इस अहद-ए-क़हक़री का हर क़दम है एक सदी
बहुत सी सख़्त बहुत ही तवील है ये घड़ी
नद्दी ये है कि ज़मीं पर है एक लाश पड़ी