भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा / जुबैर रिज़वी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:07, 14 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जुबैर रिज़वी }} {{KKCatGhazal}} <poem> तिलिस्म-ए-...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
ज़ुबाँ से उस की हर बात इक फ़साना लगे

वो जिस को दूर से देखा था अजनबी की तरह
कुछ इस अदा से मिला है के दोस्ताना लगे

इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घायल कर
वो संग फ़ेंक के बे-साख़्ता निशाना लगे

ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
न इतने पास मेरे आ के तू पुराना लगे

वो एक शख़्स जो लेटा है रेग-ए-साहिल पर
उसे न मौज-ए-तूफ़ाँ का ताज़्याना लगे