शाम की राख में लुथड़ी हुई ढलवानों पर
एक रेवड़ के थके क़दमों का मद्धम आहंग
जिस की हर लहर धुंदलकों में लुढ़क जाती है
मस्त चरवाहा चारा-गाह की इक चोटी से
जब उतरता है तो ज़ैतून की लाँबी सोंटी
किसी जलती हुई बदली में अटक जाती है
बकरियाँ दश्त की मह-कार में गूँधा हुआ दूध
छागलों में लिए जब रक़्स-कुनाँ आती हैं
कोई चूड़ी ख़म-ए-दौराँ पे छनक जाती है
जस्त भरती है कभी और कभी चलते चलते
नाचती डार मिमकते हुए बुज़्ग़ालों की
हर झुकी शाख़ की चौखट पे ठिठुक जाती है
सान पर लाख छूरी सीख़ पे सद-पारा गोश्त़
फिर भी मदहोश ग़ज़ालों की ये टोली है कि जो
बार बार अपने ख़त-ए-रह से भटक जाती है
शाम की राख में लुथड़ी हुई ढलवानों पर
खेलती है ग़म हस्ती की वो शादाँ सी उमंग
जिस की रौ वक़्त की पहनाइयों तक जाती है