भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उफ़ुक़ के उस पार / राशिद 'आज़र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:18, 20 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राशिद 'आज़र' |संग्रह= }} {{KKCatNazm}}‎ <poem> वो ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो इक घड़ी भी
कभी मिरी ज़िंदगी में आई थी इत्तिफ़ाक़न
कि मैं किसी का नहीं था
मेरा कोई नहीं था
मैं लोह-ए-महफ़ूज़ की तरह था
समझ रहा था
कि सारी फ़र्दा-ओ-दी की बातें
हैं ज़हन पर नक़्श-ए-जावेदाँ सी
वो सब हवादिस जो आने वाले हैं
लौह-ए-दिल पर लिखे हुए हैं
मैं अब किसी का नहीं हूँ कोई मिरा नहीं है

अगर तुम उस दिन
ज़रा सी हिम्मत से काम लेतीं
ज़रा सा तुम मुझ पे हक़ लेतीं
ज़रा सा तुम मुझ पे हक़ जतातीं
तो ज़िंदगी का वो मोड़ ही
कुछ अजीब होता
उफ़ुक़ के उस पार
कौन जाने
कोई मिरें इंतिज़ार में
कब तक अपनी आँखें
लहू बहा कर ख़राब करता