भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तजज़िया / राशिद 'आज़र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:21, 20 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राशिद 'आज़र' |संग्रह= }} {{KKCatNazm}} <poem> दो...' के साथ नया पन्ना बनाया)
दोस्तों आज बे-सम्त चलते हैं लोग
तुम भी इस भीड़ में खो के रह जाओगे
आओ माज़ी की खोलें किताब-ए-अमल
इक नज़र सरसरी ही सही डाल कर
देख लें अपने सब कारनामों का हश्र
तजज़िया अपनी नाकामियों का करें
अपनी महरूमियों पर हँसें ख़ूब जी खो कर
और सोचें कि क्यूँ
शहर के शोर में गुम कराहों का नौहा हुआ
हम पे क्यूँ बे-दिली छा गई
रेंगती ज़िंदगी की बक़ा के लिए
हम ने क्यूँ उड़ते लम्हों के पर काट कर रख दिए
इक जिबिल्लत की तस्कीन के वास्ते
कर के समझौता अपने ही दुश्मन के साथ
वलवले बेच डाले हरीफ़ों के हाथ