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अंधेरी शब से ला-हासिल / शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी

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अँधेरी शब के शर्मीले मोअत्तर कान में उसे ने कहा वो शख़्स
दूर उफ़्तादा लेकिन मेरे दिल की तरह रौशन है

जो मेरे पाँव के तलवे हथेली का गुलाबी गाल में
काँटा सा चुभता है

जो मेरे जिस्म की खेती पे बारिश का छलावा है
वो जिस की आँख की क़ातिल

हवस इक मुंतज़िर लेकिन न ज़ाहिर होने वाले फूल की मानिंद
बेचैनी में रखती है मुझ वो

आने वाला है
मगर वो शख़्स इस शब भी नहीं आया

भला टूटी कलाई से
वो सारे ख़्वाब सब वादे मुलाक़ातों के पैमाने

कहाँ सँभलें
भला बे-नूर आँखों में वो सूरत

झमझमाती तुंद जोश-ए-ख़ून से गर्मी-ए-लब तक तमतमाती
किस तरह रूकती

अँधेरी रात ने
देखा न कुछ सुनना ही चाहा उस के गोश-ए-नाजुक और चश्म-ए-सियह मासूम होते हैं