भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कर बर भगती मानव तन पाके / भगती दास
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:42, 24 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=भगती दास}} {{KKCatPad}} {{KKCatBhojpuriRachna}} <poem> कर बर...' के साथ नया पन्ना बनाया)
कर बर भगती मानव तन पाके।।
दाल निर्हले, भात निर्हले हदर्दी लगा के, चौका भीतर मुरदा निरहले खात बारे सराह के।।
मातपिता से करुआ बोले, मेहरी से हरखा के, पड़ जइबे नरक का घेरा, मू जइबे पछता के।।
कहीले भगतीदासजी बहुत तरह समझा के, मारेलगिहें जमुइया, तबरोए लगबे मुँह बा के।।